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आगमधरसरि
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मानव शक्रेन्द्र की आज्ञा प्राप्त कर मानव हरिणैगमेषी देव ने सुघोषा घंटा के नाद से प्रत्येक देवलोक के सभी देव को शुभ समाचार, दिवे
और कहा कि-"इन्द्र महाराजा मेरु पर्वत पर प्रभु-जन्मोत्सव करने पधारते हैं, आप मी लाभ लेने पधारें । तत्पश्चात मानव लोक के नरदेव भगवान् को उस मप में बनाये गये मेरु पर्वत पर ले गये । देवताओंने स्वयं मेरु पर्वत पर जन्माभिषेक किया था। यहा मानव भी देव प्रतीत होते थे, और प्रेक्षक वर्ग को ऐसा अनुभव हो रहा था मानों स्वयं मेरु पर्वत पर हो; वे भूल ही गये कि वे पालीताना की भूमि पर हैं।
इसके बाद प्रियंवदा परिचारिकाने महाराजा श्रीनाभि कुलकर को बधाई दी । उन्होंने भी राज्याचित जन्म-महोत्सव किया । फिर जन्म कल्याणकका जलूस निकला ।
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, विवाह-विधि और राज्याभिषेक भगवानने युवावस्था में पदार्पण किया । सुनन्दा भार सुमंगला के साथ उनकी विवाह हुआ । यहाँ तो धातु के भगवान में, चादी की सुनन्दा 'और' सुमंगला थी। ऋषभदेव भगवान् की विवाह विधि में पुरोहित-पुरोहिंतामी का कार्य इन्द्र-इन्द्राणीने किया था। यहाँ पर मानव इन्द्र-इन्द्राणीने यह कार्य किया ।
बरांत सजाई गई। दोनों पक्ष के लोग विवाह मडप में आये । वर की परछन-विधि हुई, गीत गाये गये । वर-कन्या को विवाहःदी के मागे बिठाया गया। अग्मिदी के समक्ष इन्द्रमै 'ॐ वरकन्यता: दीर्घायुमवतु शुम मवतुं ऋद्धि वृद्धि कल्याण भवतु स्वाहा' आदि मंत्र बोल कर विवाह करवाया।