________________
बागमधर सुरि
१३५.
बे महान् पवित्र पुरुष भी अपने विचारों के मूर्तिमान् होने की बात सेाचते थे, और उनके सिद्ध होने के समय की धेर्य पूर्वक राह देख रहे थे ।
सुप्रभातम्
शिलान्यास विधिका शुभ दिन था । प्रातः लाल गुलाल बिछाया । सहस्ररश्मि सविता ने
एक जिनमंदिर के काळ अरुणने आकाश में आज के प्रभात को अपने स्वर्ण किरणों से मढ़ दिया ।
वदनी महिलाओं ने अपने कारकोंने गंभीर ध्वनि में पूज्य आगम द्वारक महाराज रहे थे । शिलान्यास-भूमि
प्रभात गीत गायें गये । मंगल वाद्य बज उठे । नगर की सरोजकोकिल कंठ से मधुर गीत गाये । क्रिया मन्त्रोच्चार किया । ऐसे मंगल मुहूर्त में जिनमंदिर के शिलान्यास विधि- प्रसंग में जा निकट आई । गुरुदेव हाथ में वास - चूर्ण ले निक्षेप कर रहे थे तभी एक धन्य व्यक्ति
कर सूरिमंत्र गिनकर वास
के नाम से अंकित ताम्रपत्र शिला के पास स्थापित होते हुए उन्होंने देखा । वासनिक्षेप कर के वापस आए ।
P.
उनके मुख पर सात्त्विक आनन्द छा गया। कई दिनों से मन में जो विचार चल रहा था, जिसके कार्यान्वय के लिए मनोमन्थन हो रहा था, उसका बहुत ही सुन्दर हल आज के छेदे से दिखनेवाले मंगलप्रसंग में मिल गया । 'ताम्रपत्र पर लेख लिखना लिखना क्यों संभव नहीं । अवश्य संभव है ।'
संभव है तो आगम
उस दिन के खनूठे आनहद का लाभ तो जुन समय केवल पूज्य - पाद आचार्य भगवंत श्री आनन्दसागर सूरीश्वरजी महाराजने ही किया !