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मागमघरसरि - न्याय मागने जाना पड़ता है। काल के प्रभाव से जैन संघ को भी उनका श्रेय लेना पड़ा।
न्यायालय का न्याय!
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आया, “जैन लेाग पालीताणा के ठाकुर को प्रतिवर्ष चार हजार सुवर्ण मुदाएँ दे। राज्य की सुरक्षा के लिए अर्थतन्त्र का सशक्त होना जरूरी है, और प्रजा के पास से धन लिए बिना राजाओं से राज्य-सुरक्षा नहीं हो सकती । अतः हम 'टैक्स' को आवश्यक मानते हैं। .
। यद्यपि राजाओं को अपनी प्रजा से उचित अनुपात में और दुःख न पहुँचे उतना धन टैक्स द्वारा लेना चाहिए, तथापि जैन धर्म के भनुयायियों के अल्प संख्याबल को देखते हुए उनसे पन्द्रह हजार स्वर्ण मुद्राएँ लेना ज्यादती है, कुछ हद तक भन्याय पूर्ण है, अतः हम केवल चार हजार सुवर्ण मुद्राएँ प्रतिवर्ष लेनेका अधिकार पालीताणा नरेश को देते हैं, और इस अधिकार को हम मान्य करते हैं।"
- इस निर्णय से जैन संघ को हर्ष भी हुमा और विषाद भी। हर्ष इस लिए कि पन्द्रह हज़ार के स्थान पर चार हजार सुवर्ण मुद्राएँ देनी होगी । विषाद इस लिए कि धर्म में हस्तक्षेप करनेवाली प्रथा धार्मिकों पर लादी जानेका प्रारंभ हुआ। अन्य राज्य भी इसका अनुकरण करेंगे । इससे धर्म विषयक व्यक्ति-स्वान्थ्य लुप्त हो जानेका भय सबारे लिए मस्तक पर नंगी तलवार की तरह लटकता रहा और तीर्थ यात्रियों की संख्या में कमी आनेका भय भी उपस्थित हुआ।