________________
आगमधरसुरि
३३
प्रियतम हेमचन्द्रने कहा-"लाओ, तुम्हें रत्नजटित कंठाभरण बनवा दूं। उस आभूषण को पहन कर तुम स्वर्ग-सुन्दरी बन जाओगी। तुम्हें भी अपना जीवन धन्य मालूम होगा। तुम्हें परी के रूप में देख कर मैं भी खुश होऊँगा। इन पुरानी डिज़ाइन के गहनों से नया कंठाभरण बनवा कर तुम्हें पहनाऊँगा।"
आभूषण भाया अथवा गया ? हेमचन्द्र ने पिताजी से बात की। मुझे पत्नी के लिए इन पुगने गहनों में से नई डिजाइन के अलंकार बनवाने हैं, सो आप बनवा. दीजिए, या मुझे अनुमति दें तो मैं बनवा लूँ।
"हेमचन्द्र ! देखो, मुझे कुछ दिनों बाद अहमदाबाद जाना है। तुम भी मेरे साथ आना। अपनी पत्नी के लिए तुम्हें जैसे ऊंचे वैसे जेवर बनवाना।" पिताजीने कहा। - "पिताजी, मैं आपके साथ आऊँगा।" हेमचन्द्र ने उत्तर दिया।
माता यमुना और पत्नी माणेक को अलंकार बनवाने के लिए अहमदाबाद जाने के समाचार मालूम हो गये। उन्हों ने सोचा, पुनः नहीं लौटेंगे तो ? हमारा जीता जागता चेतन अलंकार चला जाय, तब जड़ अलंकार की क्या जरूरत ?" माता और पत्नी ने कहा, "हमें गहने नहीं चाहिए । तुम्हें अहमदाबाद जाने की जरूरत नहीं।" ससुर तथा अन्य स्वजन भी आ गये। कहने लगे- "अलंकार नहीं बनवाने हैं। अलंकारों के बदले कहीं हमी बन जाएँगे तो ! अतः तुम अहमदाबाद नहीं जाओगे।"
__"मैं कोई आपका गुलाम नहीं हूँ, मैं स्वतन्त हूँ। मैं जहाँ जाना चाहूँ वहाँ जाने का मुझे अधिकार है। आप मुझे नहीं रोक सकते।" हेमचन्द्र का ऐसा उत्तर सुनकर सब मौन रह गये ।