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आममधर सूरि
इस कारण मैं साधुवेष छोडना नहीं चाहता । सदा इसी वेष में रहना चाहता हूँ । प्रहण की हुई दीक्षा बनाये रखने का ही मेरा इरादा है ।"
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त्यागी से रागी
कुछ समय बाद उन्हें संयमी वेष छोड़ना पड़ा । फिर जैसे थे वैसे बन गये । व्रत गये, नियम गये, त्याग और वैराग्य गये । वासना हावी हो गई, उपासना जल गई । रंग-राग उभरने लगे, मौज-शौक झलकने लगे । उनका व्यवहार ऐसा हो गया कि किसी को भी यह सन्देह होने लगे कि क्या यह भी कभी साधु बना होगा ? बाह्य दृष्टि से वे पूर्ण विलासी संसारी हों गये । कोई अन्तरको नहीं पहचान सका कि यह तो एक नाटक था । अरे, खुद पिताजी भी चिंतित हो उठे । मेरा पुत्र ऐसा - संस्कार-धाम से संस्कारहीन — बन गया ? न धर्म न ध्यान, स्वाध्याय, न वाचन ? स्वाध्याय से भी च्युत ? वस्तुतः यह सही नहीं था । हेमचन्द्र का बास्तविक आन्तरिक स्वरूप कोई देख सका न जान सका ।
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कंठे ( आभूषण - विशेष ) की चाह
एक दिन पत्नी ने एकान्त में कहा - स्वामि ! आप मुझे क्या नई डिजाइन के जेवर नहीं बनवा देंगे ? एक सुन्दर कंठा बनवा दीजिए । ये पुरानी डिज़ाइन के मेरे आभूषण ले लीजिए और मुझे नये बनवा दीजिए ।
बेचारी भोली नारी । क्या यह हेमचन्द्र तेरा बना है ? याद रख,
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यह तुझे बनाकर फिर चला जाएगा । इस वक्त जो कहना हो सेा कह के, माँगना हो से माँग ले; थोड़े दिनों बाद नया खेल देखना ।