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आगमधरहि
करना । 'वायणा संदिसाहुँ' और 'वायणा लूंगा' ये आदेश माँगना । अन्त में 'इच्छकारी भगवन् पसाय कर वायणा प्रसाद कराइयेजी' कहना । इस विधि के बाद विनय पूर्वक ज्ञानाचार के आठ अतिचारें। से दूर रह कर तुम स्वयं ही आगम पढना ।
"इस में एक वात विशेष लक्ष में रखना । जिन आगमों का योगाद्वहन किया वे ही आगम पढना। आचार्य-पद-लालुपों की तरह जोग के बिना न पढना। बस इतना ध्यान रखोगे तो महान् आगमज्ञाता और बहुतों के आगमनाचनादाता बने।गे।"
दूसरे दिन से यह विधि आरम हुई । यों तो हमारे संघ में ज्ञानपंचमी के दिन आगमग्रन्थों, चरित्रग्रन्थों तथा अन्य ग्रन्थोंका वंदन है।ता है, धूप, दीप, नैवेद्य, फल आदि से पूजा होती है। वास एवं चाँदी के सिक्के पूजन में रखे जाते हैं। इस क्रिया से हम कृतकृत्य हो गये ऐसा झूठा आत्म-तोष लेते हैं। परन्तु दर असल इन मुनीश्वर ने जैसे किया वह सच्ची ज्ञानपूजा है। ___-मुनीश्वरने दूसरे दिन आय बिल किया । श्री हारिभद्रीयवृत्ति युक्त श्री दशवैकालिक सूत्रकी प्रति ग्रहण की। लकड़ी के पट्टे पर उसे प्रस्थापित किया। उक्त प्रतिको वन्दन किया, आदर पूर्वक मस्तक से लगाया तथा जिस प्रकार साक्षात् गुरुके प्रति विनय रखते हैं उसी प्रकार पुस्तक-गुरुके प्रति विनय धारण करते हुए पठन शुरू किया एक बार, दो बार...तीन बार ।
ज्ञानाभ्यासकी तीव्र उत्कंठा, शास्त्रीय पद्धतिका विनय तथा सतत सच्चे दिलका परिश्रम-ऐसे अनेक गुणों के कारण क्षयोपशम प्रकट होता गया। यहाँ तक कि प्रतियों में लिपिकार के दोष से अथवा दीमक के खा जाने से जो अक्षर या शब्द उड़ गये थे उनकी पूर्ति स्वयं करने लगे।