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अधिक शक्तिशाली है', यह स्वीकार करते हुए मुझे आनन्द होता है। ज्याद क्या कहूँ! आप एक आदर्श प्रभावक आचार्य बनें यही शुभ कामना।"
शास्त्रीय परंपरा है कि आचाय-पद दाता के उपदेशके बाद पद-ग्रहण कर्ता को भी कुछ बोलना चाहिए। अतएव पूज्य नूतन आचार्य आनन्द सागरसूरिजी आशीर्वचन के उत्तर के रूप में अपनी निर्मल संवेदनशील वाणीमें कुछ शब्द बोले..
आशीर्वचन का उत्तर “भाग्यशालियो ! पूज्य-प्रवरश्रीने मुझे जो पद दिया और आप सबने मिलकर दिलाया, अतः आपके हृदय आनन्द से पूर्ण है यह बात आपके प्रफुल्लित मुखो से प्रकट हो रही है । वस्तुतः आप तो मुझे यह पद दे कर कार्य पूरा होने का सन्तोष मानते हैं परन्तु मेरे सिर पर आज से नये उत्तरदायित्व का भार आया है। यदि इस भारका अच्छी तरह वहन हो सके तो यह कर्मो के बोझ को हल्का कर देता है, और इससे तीर्थकर नाम कम बँधता है ।
मैं इस पदके लिए कितना योग्य हूँ, यह तो ज्ञानी ही जानते हैं। फिर भी पूज्य प्रवरश्री ने मुझे यह पद दिया और मैंने लिया है, यही अभिलाषा रखता हूँ कि मेरा मन सदा शासन सेवा के कार्यों में रत रहे; मैं इस पदका, तीर्थकर परमात्मा द्वारा स्थापित संघका नम्र सेवक बना रहूँ।
"पू. उपा. धर्मसागरजी गणी, पू. उपा. श्री यशो वियजजी ग., पू. उपा. विनय विजयजी ग. आदि पूज्यगण मुझसे बहुत बड़े थे, फिर