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आगमधरसूरि
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मी इन महानुभावाने पदवी ग्रहण नहीं की यह उनकी महत्ता और निःस्पृहता थी । मैं भी यह पद लेना नहीं चाहता था, तथापि वर्तमान परिस्थितियां ऐसी हैं कि इसमें पदवी लेना अनिवार्य बन गया, अतः स्वीकार करना पड़ा है । जो जो सामान्य शक्तियाँ मुझे मिली है उनका हो सके उतना उपयोग शासन सेवा में करता रहा हूँ । अब भी यही चाहता हूँ कि अपनी शक्तियांका शासन के कार्य में उपयोग करने की मेरी भावना बनी रहे । देवगुरु के आशीर्वाद जिनशासन की सेवा के कार्यो में मुझे बल दें यहीं मंगल कामना है ।"
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इसके बाद ‘सर्व मंगल - विधि हुई । सब लोग बाजे-गाजे के साथ जिनम ंदिर गये । इस तरह मंगल-प्रसंग की पूर्णाहुति हुई । एक धर्मराजका राज्याभिषेक हुआ । यह विक्रम संवत १९७४ की वैशाख शुक्ला दशमी का शुभ दिन था ।
अनाथों के नाथ
पदवी - प्रदान प्रसंग पूर्ण होने के बाद पूज्य-प्रवर के पद पंकज बम्बई की ओर उठे । सूरत की जनता ने भव्य विदा दी परन्तु हृदय में शोक के साथ | महात्माका वियोग अनिवार्य है फिर भी दुःखदायक है ।
उस वर्ष कई प्रदेशों में वर्षा नहीं हुई । अतः पृथ्वी पर अकाल की छाया उतर पड़ी। इस प्रसंग का दुःख कम करने के लिए बहुत भाग्यवान बम्बई के धनिकों से उदार चंदा इकट्ठा कर रहे थे । पूज्यश्री को यह बात ज्ञात हुई ।
अकाल में मरते हुए पशुओं का रक्षक कौन ? बेचारे मूक प्राणी कसाई की छुरी के शिकार है। जाते थे। कई मनुष्यों की दाने दाने