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आगमधरसूरि
प्रभावकता की छाप
चातुर्मास आरंभ हुआ । व्याख्यान में ठाणांगजी सूत्रका पठन शुरू हुआ । आगत मुनिवर सामान्य नहीं, अपितु महान् हैं, यह बात दल बाँध कर आए हुए स्थानकवासी सम्प्रदाय के साधुओं का ज्ञात हुई । उन्होंने सब आडम्बर त्याग कर शान्ति धारण की। उनके मनको पक्का निश्चय हो गया कि यह एक दुर्बल सवेगी साधु ज्ञान में हम सब से प्रबल है । चौमासा बहुत हीं अच्छा हुआ, और मुनि तो फिर विहारको रवाना हुए। मारवाड़ में स्थानकवासी तथा तेरापंथी सम्प्रदायका काफी सामना करना पड़ता था ।
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साधुको अकेले नहीं
उम्र छोटी थी, सिंह की तरह एकाकी थे । रहना चाहिए - यह उत्सर्ग मार्गीय शास्त्राज्ञा है । उन्हें इस आज्ञाका ध्यान था; परन्तु गुणाधिक अथवा समगुणी मुनि न मिले तो अपवाद स्वरूप एकाकी विहरने की आज्ञा थी । यही आज्ञा पालनी पड़े ऐसी उनकी परिस्थिति थी ।
दूसरी ओर श्री आगम आदि के अध्ययनकी इन्हें तीव्र अभिलाषा थी, परन्तु गुरु कौन हो ? कहाँ और कौन आगम पढ़ाए ? यह विचित्र और उलझनभरा प्रश्न था ! 'मुझे कोई पढानेवाला नहीं है, ऐसा निर्माल्य उत्तर भी देने को वे तैयार नहीं थे । अति उत्कट इच्छा और सच्ची भावनाने एक अद्वैत गुरु खोज लिया ।
आगम-अध्ययन विषयक स्वप्न
ढलती संध्याका समय था । मरुधर की धधकती धरती पर विचरते हुए ये मुनीश्वर स्थंडिलभूमि ( शौच के लिए ) गए थे । पक्षी अपने घोंसले को लौट रहे थे । गायें चरागाह से चर कर गाँवकी ओर लौट रही थीं ।