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माममधरसरि
मोतियों के साथ अक्षत और सोने-चांदी के सुन्दर चमेली के से फूल भी थे।
यह स्वागत-यात्रा नगर में घूमकर जिनमंदिर होती हुई उपाश्रय आई । उपाश्रय की मानवमेदिनी मुनीश्वर के व्याख्यान में एकरस बन गई थी। उसे समय का भान तक न रहा।
पन्यास प्रवर मुनीश्वर कपड़वंज नगर में जब तक रहे तब तक वहाँ का वातावरण धर्म-मय बन गया था, क्यों कि धर्मराजा स्वयमेव सदेह उस नगरमें पधारे थे। राजा हाजिर हो. तब वह नगर राजा के अनुकूल व्यवहार करे यह बात तो जगद्विख्यात है।
चातुर्मास कल्प पूरा हुआ। विहार का समय आ पहुंचा। शिष्य परिवार के साथ सबने विहार किया तब नगर की सीमा तक आये हुए श्रावकों की आंखों से अश्रु-धारा बरस रही थी। श्राविकाओं को तो अपने पुत्र के वियोग का-सा असह्य दुःख हो रहा था। कपड़वंज का महान् सपूत कितने ही वर्षों बाद आया और थोडे ही दिनों बाद चलने लगा - यह दुःख बड़ा विषम था।
विदा समय की देशना मुनीश्वर एक विशाल वट वृक्ष के नीचे खड़े रहे। खड़े खड़े ही चातुर्मास-विदा की देशना भारंभ की।
"हे भव्यात्माओ ! आप को मेरे प्रति जो अनुराग है उस अनुराग को धर्म में परिणत कर दें। मुझ पर प्रीति आपमें व्यक्ति-राग उत्पन्न करेगी, जब कि धर्म की प्रीति आपका गुणानुरागी बनाएगी। आप सुन्दर धर्म-आराधना करते हैं, परन्तु अभी तक यह आराधना