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ग्यारहवा अध्याय
आचार्य पदवी
सूरत में सूरिपद अंतरिक्षजी तीर्थ की विजय के बाद पूज्यपाद भागमोद्वारकजी महाराजने विहार करते हुए पुन: सूरत में पदार्पण किया। सूरत की स्वागत यात्रा पहले से भी अधिक दर्शनीय, अधिक आकर्षक और भावमय थी।
__ वर्षों से सूरत के जैन संघ की एक यह शुभ कामना थी कि हमें अपने नगर में पूज्य भागमाद्वारकश्री को भाचार्यपद देने का पुण्य प्राप्त हो तो कितना अच्छा ! इस के लिए आवश्यक प्रयास वे कब से कर ही रहे थे, अब उन प्रयासों में और वृद्धि हुई।
पूज्यपाद भागमाद्धारकजी आचार्य पद पर आरूढ होना चाहते हों ऐसी बात बिल्कुल नहीं थी, परन्तु देशकाल की स्थिति और संयोगों को देखते हुए भाचार्य-पद ग्रहण करना अनिवार्य' था। आचार्य होने का अर्थ था एक उत्तरदायित्वपूर्ण मौर जोखिमभरे पद को ग्रहण करना। यदि शास्त्रोक्त विधि के अनुसार इस पद का पालन किया जाय तो तीर्थ कर नाम कर्म बाँध सकता है और इस के प्रति बेवफा बने तो नरक के द्वार खुल जाएँ।
सरत के श्रावकों को यह ज्ञात हुआ.कि पूज्य भागमोदारकजी