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आगमघरसूरि बीच के समय में संयोगवशात् शिथिल बने हुए फिर भी श्रद्धामें सुदृढ यतिवरेने आगम-प्रन्थों को अपनी सम्पत्ति मान कर उनकी रक्षा की, कइयों ने छिपा रखे, कइयों ने अलग अलग लिखवाये। यह भी श्री संघ का सौभाग्य समझिए ।
तत्पश्चात् यतिवर्ग शिथिलतर बनता गया। और यूरोपीय कूटनीति ने उन में फूट डाली। धीरे धीरे उपाश्रयों के अग्रणी श्रावकों ने मालिक बन कर भढारों पर कब्जा कर लिया। यदि ग्रन्थों की सुरक्षा और मरम्मत की होती तो अच्छा होता परन्तु कई अभागे कार्यकर्ताओंने उन्हें बेच दिया। कइयों ने बेचा तो नहीं परन्तु योग्य सम्हाल के अभाव में ये ग्रन्थ भंडारे में रहे रहे जीर्ण-शीर्ण-विदीर्ण हो गये।
- मुनीश्वर की भावना भागम प्रन्यो की ऐसी अवदशा से मुनीश्वर को बहुत ही दुःख हुआ । उनको भगवान की वाणी को रक्षा के लिए बहुत चिंता होने लगी। वे सोचते, हे स्वामि ! तुम्हारी वाणी को किस प्रकार बचाऊँ । इस के बिना दुनिया का कल्याण कौन करेगा ! इस कलिकाल में मोहादि विषधरों का विष कौन दूर करेगा ?
_ "क्या इन आगमे को मुद्रित करवा दूं ? यह अनुचित होगा न ! छपाई में प्रूफ रद्दी में जाएँगे। अमूल्य आगम पाणी का द्रव्य से मेलतोल होगा। अयोग्य भात्माओ के हाथ पड़ने से अनर्थ होने की संभावना है। ये पामर आत्मा रक्षक साधन को भक्षक बना देंगे। उनके लिए अमृत जहर बन जाएगा। भागों के प्रति ओ श्रद्धा और पूज्वभाव है उसमें कमी होगी। दूसरी ओर यदि भागम प्रन्थों को मुद्रित नहीं