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आगमघर सरि
ऐसे समय में ये मुनीश्वर नदी के किनारे खड्डे में कर लौटते हुए एक प्राचीन और जीर्ण मंदिर के
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शौच क्रिया से निपट
बाहर बिराजे ।
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विचारमग्न रहना तो इन मुनीश्वर का व्यसन का । फिर भी इन विचारों में कभी बुराई की बदबू नहीं आती थी, उन में सद्भावना के सुगंधित धूम की महक ही निकलती थी । वे विचार कर रहे थे 'कि 'मुझे आगम कौन पढ़ाएगा ? कहाँ पढ़ने जाऊँ ?' परन्तु कोई उत्तर नहीं मिलता था । उपाश्रय में आकर प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, और संथारा पोरिसी की परन्तु नींद किसी कदर नहीं आ रही थी । आगम - वाचना कौन देगा ? यह विचार उन्हें सता रहा था । इस विचार में ही निद्राधीन हो गये । पुण्य-योग से एक स्वप्न आया ।
स्वप्न में किसी ज्ञानी गुरु के दर्शन हुए । इन मुनीश्वरने उन्हें वन्दन किया । ज्ञानी गुरु ने पूछा "आनन्द सागरजी ! उदास क्यों हो ?" "महोदय ! मैं आगम-वाचना देनेवाले गुरु की खोज के विचार में हूँ । मुझे संयम की साधना में कोई चिंता नहीं है, जरा भी दुःख नहीं है । परन्तु 'आगमों का अध्ययन कहाँ जाकर करूँ ?' यही चिंता मन को सता रही है ।"
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'तनिक भी चिंता न करे। तुम पूर्वभव में अपूर्व श्रुतधर थे आज तुम्हें दूसरे गुरु की आवश्यता नहीं है । आगमज्ञान तुम में भरा हुआ है ह्रीं । केवल थोडे से आवरण आ गये हैं, उन्हें दूर करना ज़रूरी है। ये आवरण भी नर्म हैं। एक काम अवश्य करना ।”
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वाचना विधि
"तुम्हें जो आगम सीखना हो उस आगमग्रन्थ को सामने पट्टे पर अथवा ठवनी पर रखना । फिर उसे जीवंत आगमगुरु मानकर वन्दन