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“आगमधरसूरि
कहीं कहीं पंक्तिया उपलब्ध नहीं थी, वही पंक्तिया बैठानेका प्रयत्न किया। इन मुनीश्वर द्वारा अपने क्षयोपशम से योजित शब्द तो सही निकले ही थे, पंक्तिया भी अक्षरशः सत्य निकलीं। तब क्यों न भविष्य में दिया जानेवाला 'भागमोद्धारक' का बिरद समीचीन हो। ऐसे समर्थ और शासन-हित-चिंतक की निंदा करने वाले बहादुर भी बेचारे बहुत से थे। इसका मुख्य कारण ईर्ष्या और द्वेष था।
ज्ञानाभ्यास और धर्म प्रभावना ये दोनों कार्य यह मुनीश्वर एक साथ कर रहे थे। कुछ समय मरुधर में रहकर गुजरात में पधारे और पेटलाद में चातुर्मास किया।
तिथिविषयक भूली हुई अथवा लगभग छिन्नभिन्न हुई पद्धतिका अनेक शास्त्रों के वाचन, मनन तथा निदिध्यासन के द्वारा पेटलादके चातुर्मास में परिमार्जनकर उसकी पुनः शुद्ध स्थापना की और उसी वर्ष संवत्सरी के दिन से उसका अमल किया। यह विक्रम संवत् १९५२ का पुण्य वर्ष था।
वहाँसे विचरण करते करते छाणी पधारे । कुछ काल रह कर विशेष अध्ययन आगे बढ़ाया।