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आगमधरसरि
. पिता और पुत्र अहमदाबाद गये। वहाँ वे विद्याशाला में उतरे। मार्ग की तथा कार्य की थकावट थी, अतः रात को देर से नीद आई। सुबह उठने में देर हो गई। प्राची में सूर्योदय हुआ, परन्तु ये भाग्यवान् नहीं उठे। देर से उठने पर एक नित्य-नियमित श्रावकने ठंडी आवाज में कहा
धर्मबन्धुका संकेत "भाई हेमचन्द्र ! तुमने तो सामायिक, प्रतिकमण आदि सब कुछ छोड़ दिया। यह तुम्हें शोभा नहीं देता।"
पूर्व परिचित श्रद्धालु श्रावक के मुख से ऐसे वचन सुनकर हेमचन्द्रका सिर झुक गया । लज्जा-भार से नेत्र नत हो गये। धीमी दृढ आवाज मैं उत्तर दिया
'धर्मबन्धु ! छोड़ा है परन्तु पुनर्ग्रहण के लिए। . ऐसे तो हेमचन्द्र हृदय से वैरागी थे ही। उन्हें उत्कंठा • थी ही किं पुनः मुनि वेष कब प्राप्त हो । इसी हेतु से अहमदागद आए थे। रात को श्री जंबुस्वामीजीका रास-पय-बन्ध-चरित्र-पढ़ा था। अतः जागरण हुआ था-रात को देर से सोये थे।
. प्रातः क्रिया एवं नित्य-नियमों से निवृत्त हो, दोपहर का भोजन कर अतिथिगृह में आराम करने के लिए बाई करवट लेट रहे थे ।
उस समय हेमचन्दने पिताजी से कहा-"पिताजी ! आप मुझे दीक्षा दिलवा दीजिए । मेरा मन भाज दीक्षा के लिए उत्क ठित है। कृपया अब मुझे कपड़वंज न ले जाइये । गत रात्रि में श्री जम्बुस्वामीजी का चरित्र पढ़ते समय दृढ़ निर्णय किया है कि मैं दीक्षा लूँगा। आप कपा कर सहयोग दीजिए।"
"बेटा हेमचन्द्र ! मैं तुम्हारी भावना में विघ्नभूत नहीं बनूंगा।" .