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पाँचवाँ अध्याय
संयम और ज्ञान
गुरु के चरणों में
यशस्वी और तेजस्वी महात्मा झवेरसागरजी महाराज के चरणों में हेमचन्द्र ने विक्रम संवत् १९४७ माघ शुक्ला ५ के दिन पुनः उल्लास पूर्वक दीक्षा ग्रहण की । हेमचन्द्र कुमार से मुनि आनन्दसागरजी महाराज बने । एक दिन की आशा आज फलीभूत हुई । उनका रोम राम उमंग से प्रफुल्लित था । सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो कर सच्ची स्वतन्त्रता की आभा उनके मुख पर चमक रही थी। अब तो दीक्षा के मार्ग पर आगे कदम बढ़ा रहे थे ।
पुत्र के मार्ग पर पिता
श्रेष्ठी श्री मगनलाल कपड़वेज गए । सास-ससुर माह में चकचूर थे । मगनलाल को अकेले आये हुए देख कर वे लोग उन पर ऐसे टूट पड़े जैसे शिकारी शिकार पर टूट पडते है । अपशब्दों की वर्षा कर दी । हैरान-परेशान करने में कोई कमी न रखी ।
मगनभाई के मनेारथ
युद्धखार को भी शांतिबादी जीत सकता है, इस नियम के अनुसार समता के सागर जैसे श्री मगनभाई ने सब कुछ सहन किया, और उचित मार्ग अपनाया । उनके मन-मंदिर में एक हलचल मच गई - क्या संसार