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आगमधरसूरि
प्रयत्न शुरू किये परन्तु कहीं ढंग नहीं बैठा । जगह जगह ज्ञान-भंडारों के अध्यक्षों और कार्य-वाहको को कहलवाया । परन्तु एकाधिकार और संपूर्ण-स्वामित्व भोगनेवाले उपाश्रयों के श्रावक ठेकेदारों को लाखों के मूल्य की पुस्तके दीमक के हवाले करने में अपनी हेठी नहीं लगती थी परन्तु उन्हे एक पवित्र और अध्ययनशील साधु के हाथ में छोटासा ग्रन्थ सौंपने में कंपकंपी छूटती थी। उस समय व्याकरण जैसे प्रन्थ मिलना मुश्किल था तो आगमों की तो बात ही क्या ...
इस तरह के दकियानूस अग्रणियों की बदौलत करे।डों के मूल्य के और पवित्रताके प्रतीक-से आगम-ग्रन्थ, चरित्र आदि शीर्ण-विशीर्ण है। गये हैं। ये लोग आगम-प्रन्थों को अंधेरी कोठरी में बन्द रखने में अपना मनगढंत धर्म मानते थे।
गुरु और शिष्य-दानों व्याकरण की खोज में प्रयत्नशील थे, परन्तु शीघ्र परिणाम नहीं आया । छः महीनों के सतत और सख्त परिश्रम के बाद किसी सज्जन के हृदय में भावना जगी और उसने अंधेरी कोठरी की अलमारी में बन्द एक व्याकरण की प्रति-सो भी अपूर्ण और दीमक लगी हुई-निकाल कर दी। फिर भी उक्त कार्यकर्ता को धन्यवाद देना ही रहा।
व्याकरण का अध्ययन शुरू किया। केवल नब्बे दिनों में यह ग्रन्थ कण्ठस्थ कर लिया, सेो भी मत्र-मात्र नहीं, परिपूर्ण अर्थ के साथ । जिस ग्रन्थकी प्राप्ति में एक सौ अस्सी दिन लगे उसे सीखने में केवल नब्बे दिन ।
इस घटनासे प्रन्थों की दुर्लभता की कुछ कल्पना आप कर सकेंगे। ऐसी अनेक मानव-निर्मित कठिनाइयों की आधी के बीच भी अगाध परिश्रम तथा अदम्य उत्साह के साथ अध्ययन जारी रखा । पुस्तकों तथा