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आगमधरसूरि ऐसा है ? काई आत्मा आत्मकल्याण के मार्ग पर जाता हो तो उसमें विक्षेप पर विक्षेप डालते रहना ! धन-दौलत, माल-असबाब, और स्वजने का यही दुःखद स्वरूप है ? समय पर कोई किसीका नहीं होता। ऐसे काजल-काले कारागार में रह कर मैं कब तक सड़ा करूँगा ?
ऐसे विचारों के जोर पर व्यवहार के कार्य मगनभाई ने जल्दी निपटा दिये। तत्पश्चात् सिद्ध गिरि राजकी यात्रा के लिए रवाना हुए। देवाधिदेव के दर्शन कर कृतार्थ हुए । भगवान् की स्तुति कर प्रार्थना करने लगे
भावना सफल हुई 'हे संसार के तारक ! तू सब को तारता है, पर मुझे क्यों नहीं तारता ? मेरा कौनसा अपराध है ? प्रभो ! अब तो तेरा शासन मेरी नस नस में रम रहा है। कपडवंज छोड़ आया हूँ, अब लौट कर नहीं जाऊँगा । करुणासिंधो ! मुझे चारित्र की प्राप्ति हो, भव-भव में प्राप्ति हो, तेरा सेवक बनूँ, तेरी आज्ञाका पालक बनें । हे भगवन् ! तेरे सिवा मेरा कौन है ! तू विश्वका उद्धारक है, तो मेरा भी उद्धार कर।'
यात्रा करके रवाना हुए । प्रतापी मुनीश्वर श्री प्रताप विजयजी से भेंट हुई । उनके चरणों में सर्वविरति महाचारित्र स्वीकार किया । इसे कहते हैं 'भावना भवनाशिनी।' वीर संवत् २४२० का मंगलमय वर्ष था। श्रेष्ठी मगनभाई भिटकर मुनिप्रवर श्री जीवविजयजी महाराज बने ।
विहार और महाविहार नूतन मुनि जीवविजयजी पूज्य गुरुदेव के साथ संयम की साधना करते हुए प्रामानुग्राम विचरण कर रहे थे। सुन्दर तप-जप करते थे। वयोवृद्ध होने के कारण अधिक ज्ञान की आशा नहीं थी, फिर भी योग्य