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आगमधरसूरि
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कमी न थी। देवांगना के समान प्रेममयी पत्नी प्रार्थना करती थी, परन्तु इस निलेप हृदय पर कोई असर नहीं होता था। वे पत्नी के होते हुए भी भाव-ब्रह्मचारी का जीवन जीते थे। ध्यान, मनन, ज्ञानचर्या तथा कषायजय के हेतु ही सारा समय बिताते थे। सोलह वर्ष की उम्र में ही हेमचन्द्र की ऐसी स्थिति हो गई थी कि उन्हें त्यागी गृहस्थ अथवा स्थितप्रज्ञ कह सकते हैं।
माता यमुना, पत्नी माणेक, सास, ससुर और गांव के लोगों के एकत्रित विरोध के बावजूद हेमचन्द्र समताभाव से सर्व नाटक देख रहे थे। पिताजीको भी ऐसी बातों में जरा सा हिस्सा लेना पड़ता था परन्तु उनकी आन्तरिक इच्छा पुत्र के मार्ग को सरल बनाने की थी।
पिता की भावना
हेमचन्द्र के पिता स्वयं भी दीक्षा लेने की इच्छा रखते थे। वे कई बार प्रातःकाल प्रतिक्रमण के गद यह भावना करते थे, "हे चेतन ! यह शरीर अपवित्र है, नश्वर है, दुःख का सर्जक है। आखिर इस शरीर को अग्नि की धधकती लपटे के बीच रखकर फूंक दिया जाएगा। हे चेतन ! इस शरीर पर आसक्ति, पुत्रादि की ममता, संसार की वासना तुझे कहा ले जाएगी !
_ "पुद्गल की पराधीनता तुझे अनादि अंधकार में डाल देगी, तेरे मात्मा के गुणों को लूट लेगी। मानव जन्म फिर मिलना अत्यन्त दुर्लभ हो जाएगा। जिन शासन की प्राप्ति दुर्लभतर होगी, कषाय तुम्हारे आत्मा के अनन्त वैभव को पल पल लूट रहे हैं। सांसारिक स्खलन एवं स्नेही भी आन्तरिक धन को लूट रहे हैं। आत्मा की किसीको परवाह नहीं है।