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आगमसूर
बना है । तुम्हारी मृदुल काया तपस्या के लिए नहीं गढ़ी गई है । तुम्हें धर्म करना है तो घर में करो । दीक्षा तुम्हारा काम नहीं, आइन्दः दीक्षा का नाम न लेना ।"
हेमचन्द्र का उत्तर
"माँ ! हे माँ ! तू यह क्या कह रही है ? यह सब क्षणिक है, नश्वर है । कर्म-बन्धन करवानेवाला है । मैं अपने अखंड आत्मा की साधना के लिए दीक्षा ही लूँगा । तुम निर्बल न बना । तुम्हें तो मुझ f दीक्षा के लिए तैयार करना चाहिए उस के बदले तुम्हीं मना करती है। यह कैसे चल सकता है ?
"संसार मे कौन किस का है ? मैं माया के बंधनों को चीर डालूँगा । माता ! तुम माणेक की चिंता न करो | वह सच्चा माणिक होगी तो दीक्षा लेगी । इस उम्र में यदि मैं परलोक पहुँच जाऊँ ते। ''तुम और माणेक क्या करें ? इसकी अपेक्षा दीक्षा में हेोऊँगा तो जीवित तो गिना जाऊँगा न ?"
हेमचंद्र को उसके मित्रा तथा पत्नीने भी वासना का पंछी बनाने
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के बहुत प्रयत्न किये परन्तु सब प्रयत्न असफल हुए । सास और ससुर की ओर से भी अनेक प्रलोभन, धमकियां मिलने पर भी हेमचन्द्र अपने निश्चय से तिल भर भी विचलित नहीं हुए ।