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चौथा अध्याय
सिंह स्वतन्त्र हो गया, परन्तु...
शस्य - श्यामला धरती पर अन्धकारने अपना साम्राज्य स्थापित कर दिया था । पक्षी अपने घोंसलों में छिपे बैठे थे । छोटे बच्चे गहरी नींद सा रहे थे । लगभग सारी दुनिया निद्रादेवी के ध्यान में लीन थी । मात्र संत और शैतान थोड़े जाग रहे थे । संत आत्मध्यान के लिए और शैतान परद्रव्य हरण के लिए ।
ऐसी काली अंधेरी रात में हेमचन्द्र उठ खड़ा हुआ । विचार करने लगा - "माह की मदिरा से मत्त परिवार मुझे त्याग मार्ग पर जाने देगा हीं नहीं । जिसे दर्द का भान हुआ है वह दर्दी दर्द मिटाने के सभी उपाय करता है । मुझे भी कुछ करना होगा । इस हेतु से मुझे इसी क्षण चले जाना चाहिए ।"
बाह्य मनका उपद्रव
बाह्य मनने चौंककर कहा- - "अरे हेमचन्द्र ! तू अपनी माँ से दगा करके कहा जाता है ? अपनी सुन्दरी सती नव-वधू के मुसकुराते हुए मुख को देख । उसकी दशाका विचार कर । पागल ! तू जहाँ जामेको तैयार हुआ है वहाँ जरा भी सुख नहीं है । अरे ! सुखका नामोनिशान भी नहीं है । तुझे किसी साधुने धोखा दिया है । अपने घर में बढ़ते हुए धन - पुंज को देख । जिसे पानेके लिए लोग अनीति - अन्याय और खून खच्चर मचाते हैं वह तुझे अनायास मिला है। उसे छोड़ कर