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आगमधरनि पतिका बैराग्यमय व्यवहार और पिता की बातें सुन कर वह कुछ उदास हो जाती थी, परन्तु जब उसे खयाल आता कि उसका पति एक चिन्तक ओजस्वी पुरूष है तब वह विधि का उपकार मानती और न्योछावर होती।
- इस नववधू ने एक रात अपने पति से पूछा, 'स्वामि ! आपको संसारिक वासना नहीं सताती । क्या मैं पसन्द नहीं आती ? मुझ में कोई कमी है ? क्या मुझमें आपकी सेवा करनेकी योग्यता नहीं है! किस बात में मैंने आपको असन्तोष होने दिया है। मेरा अपराध हो से बताइये। आप कहें सो प्रायश्चित ले कर तपस्या कर के शुद्ध बनूँगी, अपने प्रियतम को प्रसन्न करने के लिये मैं व्रत-मनौती करूँगी, तप-जप करूँगी । कहिये प्राणनाथ ! कहिये, मैं क्या करूँ ! ___पूर्वजन्म के वैरागी हेमचन्द्रने कहा, "माणेक, तुम्हारी वात तो सही है, परन्तु मेरा मन संसार की ओर नहीं ढलता, वासना की भोर नहीं मुड़ता । मैं वासना के दलदल में फंस कर अपनी आत्माकी बरबादी करना नहीं चाहता, साथ ही मुझे यह भी अच्छा नहीं लगता कि तुम्हारी आत्मा की बरबादी हो। ऐसा भी नहीं है कि तुम्हारा कोई दोष है और मैं तुमसे नाराज हूँ। मुझे संसारकी ओर सचमुच कोई आकर्षण नहीं है। मुझे जवरदस्ती ब्याह दिया गया है। आज भी मेरी आन्तरिक अभिलाषा भगवान महावीर प्रभु द्वारा निर्देशित प्रवज्याके पथ पर पद धरने की है। तुम भी भात्मकल्याणके पथ पर प्रयाण करो।"
दुनियाकी सष्ठि में तो हेमचंद्र और माणेकका जीवन गृहस्थ जीवन, दाम्पत्य-जीवन बन चुका था।