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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-२/३४
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सुगठित और अत्यन्त सुन्दर थे । उनकी देह के मध्यभाग वज्ररत्न जैसे सुहावने, उत्तम लक्षण युक्त, विकृत उदर रहित, त्रिवली युक्त, गोलाकार एवं पतले थे । उनकी रोमराजियाँ सरल, सम, संहित, उत्तम, पतली, कृष्ण वर्णयुक्त, चिकनी, आदेय, लालित्यपूर्ण, तथा सुरचित, सुविभक्त, कान्त, शोभित और रुचिकर थीं । नाभि गंगा के भंवर की तरह गोल, घुमावदार, सुन्दर, विकसित होते कमलों के समान विकट थीं । उनके कुक्षिप्रदेश, अस्पष्ट, प्रशस्त, थे । पसवाड़े सन्नत, संगत, सुनिष्पन्न, मनोहर थे । देहयष्टियां मांसलता लिए थीं, वे देदीप्यमान, निर्मल, सुनिर्मित, निरुपहत थीं । उनके स्तन स्वर्ण-घट सदृश थे, परस्पर समान, संहित से, सुन्दर अग्रभाग युक्त, सम श्रेणिक, गोलाकार, अभ्युनत, कठोर तथा स्थूल थे । भुजाएँ सर्प की ज्यों क्रमशः नीचे की ओर पतली, गाय की पूंछ की ज्यों गोल, परस्पर समान, नमित आदेय तथा सुललित थीं । नख तांबे की ज्यों कुछ-कुछ लाल थे । यावत् वे सुन्दर, दर्शनीया, अभिरूपा एवं प्रतिरूपा थी ।
भरतक्षेत्र के मनुष्य ओघस्वर, मधुर स्वर युक्त, क्रौंच स्वर से युक्त तथा नन्दी स्वर युक्त थे । उनका स्वर एवं घोष या गर्जना सिंह जैसी जोशीली थी । स्वर तथा घोष में निराली शोभा थी । देह में अंग-अंग प्रभा से उद्योतित थे । वे वज्रऋषभनारचसंहनन, समचौरस संस्थानवाले थे । चमड़ी में किसी प्रकार का आतंक नहीं था । वे देह के अन्तर्वर्ती पवन के उचित वेग, कंक पक्षी की तरह निर्दोष गुदाशय से युक्त एवं कबूतर की तरह प्रबल पाचनशक्ति वाले थे । उनके अपान-स्थान पक्षी की ज्यों निर्लेप थे । उनके पृष्ठभाग तथा ऊरु सुदृढ़ थे। वे छह हजार धनुष ऊँचे होते थे । मनुष्यों के पसलियों की दो सौ छप्पन हड्डियां होती थीं। उनकी सांस पद्म एवं उत्पल की-सी अथवा पद्म तथा कुष्ठ नामक गन्ध-द्रव्यों की-सी सुगन्ध लिए होते थे, जिससे उनके मुंह सदा सुवासित रहते थे । वे मनुष्य शान्त प्रकृति के थे । उनके जीवन में क्रोध, मान, माया और लोभ की मात्रा मन्द थी । उनका व्यवहार मृदु, सुखावह था । वे आलीन, गुप्त, चेष्टारत थे । वे भद्र, विनीत, अल्पेच्छ, संग्रह नहीं रखनेवाले, भवनों की आकृति के वृक्षों के भीतर वसनेवाले और इच्छानुसार काम भोग भोगनेवाले थे ।
[३५] भगवन् ! उन मनुष्यों को कितने समय बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ? हे गौतम ! तीन दिन के बाद होती है । कल्पवृक्षों से प्राप्त पृथ्वी तथा पुष्प-फल का आहार करते हैं । उस पृथ्वी का आस्वाद कैसा होता है ? गौतम ! गुड़, खांड, शक्कर, मत्स्यंडिका, राव, पर्पट, मोदक, मृणाल, पुष्पोत्तर, पद्मोत्तर, विजया, महाविजया, आकाशिका, आदर्शिका, आकाशफलोपमा, उपमा तथा अनुपमा, उस पृथ्वी का आस्वाद इनसे इष्टतर यावत् अधिक मनोगम्य होता है ।
भगवन् ! उन पुष्पों और फलों का आस्वाद कैसा होता है ? गौतम ! तीन समुद्र तथा हिमवान पर्यन्त छह खंड के साम्राज्य के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट का भोजन एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं के व्यय से निष्पन्न होता है । वह कल्याणकर, प्रशस्त वर्ण यावत् प्रशस्त स्पर्शयुक्त होता है, आस्वादनीय, विस्वादनीय, दीपनीय, दर्पणीय, मदनीय, बृंहणीय, उपचित एवं प्रह्लादनीय; ऐसे उन पुष्पों एवं फलों का आस्वाद उस भोजन से इष्टतर होता है ।
[३६] भगवन् ! वे मनुष्य वैसा आहार का सेवन करते हुए कहाँ निवास करते हैं ? हे गौतम ! वे मनुष्य-वृक्ष-रूप घरों में निवास करते हैं । उन वृक्षों का आकार-स्वरूप कैसा