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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
काजल लिया । वह उत्कृष्ट, त्वरित वेगयुक्त, सिंह की गति की ज्यों प्रबल, शीघ्रतायुक्त, तीव्रतायुक्त, दिव्य देवगति से जहाँ राजा भरत था, वहाँ आकर छोटी-छोटी घंटियों से युक्त पंचरंगे उत्तम वस्त्र पहने हुए, आकाश में संस्थित होते हुए उसने अपने जुड़े हुए दोनों हाथों से अंजलिपूर्वक राजा भरत को 'जय, विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित करके कहा- आपने पूर्व दिशा में मागध तीर्थ पर्यन्त समस्त भरतक्षेत्र भली-भांति जीत लिया है । मैं आप द्वारा जीते हुए देश का निवासी हूँ, आपका अनुज्ञावर्ती सेवक हूँ, आपका पूर्व दिशा का अन्तपाल -1 अतः आप मेरे द्वारा प्रस्तुत यह प्रीतिदान एवं हर्षपूर्वक अपहृत भेंट स्वीकार करें ।'
राजा भरत ने मागध तीर्थकुमार द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत प्रीतिदान स्वीकार किया । मागध तीर्थकुमार देव का सत्कार किया, सम्मान किया, विदा किया । फिर राजा भरत ने अपना रथ वापस मोड़ा । वह मागथ तीर्थ से होता हुआ लवणसमुद्र से वापस लौटा । जहाँ उसका सैन्य था, वहाँ आकर घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया, रथ से नीचे उतरा, स्नानघर में प्रविष्ट हुआ । स्नानादि सम्पन्न कर भोजनमण्डप में आकर सुखासन से बैठा, तेले का पारण किया । भोजनमण्डप से बाहर निकला, पूर्व की ओर मुंह किये सिंहासन पर आसीन हुआ । सिंहासनासीन होकर उसने अठारह श्रेणीप्रश्रेणी - अधिकृत पुरुषों को बुलाया । उन्हें कहामागधतीर्थकुमार देव को विजित कर लेने के उपलक्ष में अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित करो । तत्पश्चात् शस्त्रागार से प्रतिनिष्क्रान्त हुआ । उस चक्ररत्न का अरक - हीरों से जड़ा था। आरे लाल रत्नों से युक्त थे । उसकी नेमि स्वर्णमय थी । उसका भीतरी परिधिभाग अनेक मणियों से परिगत था । वह चक्रमणियों तथा मोतियों के समूह से विभूषित था । वह मृदंग आदि बारह प्रकार के वाद्यों के घोष से युक्त था । उसमें छोटी-छोटी घण्टियां लगी थीं । वह दिव्य प्रभावयुक्त था, मध्याह्न काल के सूर्य के सदृश तेजयुक्त था, गोलाकार था, अनेक प्रकार की मणियों एवं रत्नों की घण्टियों के समूह से परिव्याप्त था । सब ऋतुओं में खिलने वाले सुगन्धित पुष्पों की मालाओं से युक्त था, अन्तरिक्षप्रतिपन्न था, गतिमान् था, १००० यक्षो
परिवृत था, दिव्य वाद्यों के शब्द से गगनतल को मानो भर रहा था । उसका सुदर्शन नाम था । राजा भरत के उस प्रथम-चक्ररत्न ने यों शस्त्रागार से निकलकर नैऋत्य कोण में वरदाम तीर्थ की ओर प्रयाण किया ।
[ ६८ ] राजा भरत ने दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण-पश्चिम दिशा में वरदामतीर्थ की ओर जाते हुए देखा । वह बहुत हर्षित तथा परितुष्ट हुआ । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा- घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं से परिगठित चातुरंगिणी सेना को तैयार करो, आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र ही सुसज्ज करो । यों कहकर राजा स्नानघर में प्रविष्ट हुआ । स्नानादि सम्पन्न कर बाहर निकला । गजपति पर वह नरपति आरूढ हुआ । यावत् हजारों योद्धाओं से वह विजय परिगत था । उन्नत, उत्तम मुकुट, कुण्डल, पताका, ध्वजा, तथा वैजयन्ती-चँवर, छत्र- इनकी सघनता से प्रसूत अन्धकार से आच्छन्न था । असि, क्षेपणी, खड्ग, चाप, नाराच, कणक, कल्पनी, शूल, लकुट, भिन्दिपाल, धनुष, तूणीर, शर-आदि शस्त्रों से, जो कृष्ण, नील, रक्त, पीत तथा श्वेत रंग के सैकड़ों चिह्नों से युक्त थे, व्याप्त था । भुजाओं को ठोकते हुए, सिंहनाद करते हुए योद्धा राजा भरत के साथ-साथ चल रहे थे । घोड़े हर्ष से हिनहिना रहे थे, हाथी चिंघाड़ रहे थे, लाखों रथों के चलने की ध्वनि, घोड़ों को ताड़ने