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महाप्रत्याख्यान-६४
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सुख को मैंने कईंबार अनुभव किया तो भी सुख की तृष्णा का शमन नहीं हुआ |
[६५] जो किसी प्रार्थना मैंने राग-द्वेष को वश होकर प्रतिबंध से करके कई प्रकार से की हो उसकी मैं निन्दा करता हूँ और गुरु की साक्षी में गर्हता हूँ।
[६६] मोहजाल को तोडके, आठ कर्म की श्रृंखला को छेद कर और जन्म-मरण समान अरहट्ट को तोडके तूं संसार से मुक्त हो जाएगा |
[६७] पाँच महाव्रत को त्रिविधे त्रिविधे आरोप के मन, वचन और काय गुप्तिवाला सावध होकर मरण को आदरे ।
[६८] क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम और द्वेष का त्याग करके अप्रमत्त ऐसा मैं एवं;
[६९] कलह, अभ्याख्यान, चाडी और पर की निन्दा का त्याग करता हुआ और तीन गुप्तिवाला मैं एवं
[७०] पाँच इन्द्रिय को संवर कर और काम के पाँच (शब्द आदि) गुण को रूंधकर देव गुरु की अतिअशातना से डरनेवाला मैं महाव्रत की रक्षा करता हूं।
. [७१] कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कोपातलेश्या और आर्त रौद्र ध्यान को वर्जन करता हुआ गुप्तिवाला और उसके सहित;
[७२] तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या एवं शुकलध्यान को आदरते हुए और उसके सहित पंचमहाव्रत की रक्षा करता हूं।
[७३] मन द्वारा, मन सत्यपन से, वचन सत्यपन से और कर्तव्य सत्यपन से उन तीनों प्रकार से सत्य रूप से प्रवर्तनेवाला और जाननेवाला मैं पंच महाव्रत की रक्षा करता हूँ।
[७४] सात भय से रहित, चार कषाय को रोककर, आठ भद के स्थानक रहित होनेवाला मैं पंचमहाव्रत की रक्षा करता हूँ ।
[७५] तीन गुप्ति, पाँच समिती पच्चीस भावनाएँ, ज्ञान और दर्शन को आदरता हुआ और उनके सहित मैं पंचमहाव्रत की रक्षा करता हूँ ।
[७६] इसी प्रकार से तीन दंड़ से विरक्त, त्रिकरण शुद्ध, तीन शल्य से रहित और त्रिविधे अप्रमत ऐसा मैं पंचमहाव्रत की रक्षा करता हूँ ।
[७७] सर्व संग को सम्यक् तरीके से जानता हूँ | माया शल्य, नियाण शल्य और मिथ्यात्व शल्य रूप तीन शल्य को त्रिविधे त्याग करके, तीन गुप्तियाँ और पाँच समिती मुझे रक्षण और शरण रूप हो ।
[७८] जिस तरह समुद्र का चक्रवाल क्षोभ होता है तब सागर के लिए रत्न से भरे जहाज को कृत करण और बुद्धिमान जहाज चालक रक्षा करते है
[७९] वैसे गुण समान रत्न द्वारा भरा, परिषह समान कल्लोल द्वारा क्षोभायमान होने को शुरु हुआ तप समान जहाज को उपदेश समान आलम्बनवाला धीर पुरुष आराधन करते है (पार पहुंचाता है ।)।
[८०] यदि इस प्रकार से आत्मा के लिए व्रत का भार वहन करनेवाला, शरीर के लिए निरपेक्ष और पहाड की गुफा में रहे हुए वो सत्पुरुष अपने अर्थ की साधना करते है ।
[८१] यदि पहाड की गुफा, पहाड़ की कराड़ और विषम स्थानक में रहे, धीरज द्वारा अति सज्जित रहे वो सुपुरुष अपने अर्थ को साधते है ।