Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 189
________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद [ ४७ ] मानव की गति में जन्म और मरण है या फिर वेदनाएँ है; [४८ ] देवलोक में जन्म, मरण उद्वेग करनेवाले है और देवलोक से च्यवन होता है इन सबको याद करते हुए मैं अब पंड़ित मरण मरूँगा । १८८ [४९] एक पंड़ित मरण कई सेंकड़ो जन्म को (मरण को) छेदता है । आराधक आत्मा को उस मरण से मरना चाहिए कि जिस मरण से मरनेवाला शुभ मरणवाला होता है ( भवभ्रमण घटानेवाला होता है । ) । [५० ] जो जिनेश्वर भगवान् ने कहा हुआ शुभ मरण - यानि कि पंड़ित मरण है, उसे शुद्ध और शल्य रहित ऐसा मैं पादपोपगम अनशन लेके कब मृत्यु को पाऊँगा ? [५१] सर्व भव संसार के लिए परिणाम के अवसर द्वारा चार प्रकार के पुद्गल मैंने है और आठ प्रकार के (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय इत्यादि) कर्म का समुदाय मैने बाँधा है । [५२] संसारचक्र के लिए उन सर्व पुद्गल मैने कई बार आहाररूप में लेकर परीणमाए तो भी तृप्त न हुआ । [ ५३ ] आहार के निमित्त से मैं सर्व नरक लोक के लिए कई बार उत्पन्न हुआ हूँ और सर्व म्लेच्छ जाति में उत्पन्न हुआ हूँ । [ ५४ ] आहार के निमित्त से मत्स्य भयानक नरक में जाते है । इसलिए सचित्त आहार मन द्वारा भी प्रार्थने के योग्य नही है । [ ५५ ] तृण और काष्ट द्वारा जैसे अग्नि या हजारो नदियाँ द्वारा जैसे लवण समुद्र तृप्त नहीं होता वैसे यह जीव कामभोग द्वारा तृप्त नहीं होता । [ ५६ ] तृण और काष्ट द्वारा जैसे अग्नि या हजारो नदियों द्वारा जैसे लवणसमुद्र तृप्त नहीं होता वैसे यह जीव द्रव्य द्वारा तृप्त नहीं होता । [ ५७ ] तृण और काष्ट द्वारा जैसे अग्नि या हजारो नदियों द्वारा जैसे लवणसमुद्र तृप्त नहीं होता वैसे जीव भोजन विधि द्वारा तृप्त नहीं होता । [ ५८ ] वड़वानल जैसे और दुःख से पार पाएँ ऐसे अपरिमित गंध माल्य से यह जीव तृप्त नहीं हो शकता | [ ५९ ] अविदग्ध ( मूरख) ऐसा यह जीव अतीत काल के लिए और अनागत काल के लिए शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श करके तृप्त नहीं हुआ और होगा भी नहीं । [६०] देवकुरु, उत्तरकुरु में उत्पन्न होनेवाले कल्पवृक्ष से मिले सुख से और मानव विद्याधर और देव के लिए उत्पन्न हुए सुख द्वारा यह जीव तृप्त न हो शका । [६१] खाने के द्वारा या पीने के द्वारा यह आत्मा बचाया नहीं जा शकता; यदि दुर्गति में न जाए तो निश्चय से बचाया हुआ कहा जाता है । [६२] देवेन्द्र और चक्रवर्तिपन के राज्य एवम् उत्तम भोग अनन्तीबार पाए लेकिन उनके द्वारा मैं तृप्त न हो शका । [ ६३ ] दूध, दहीं और ईक्षु के रस समान स्वादिष्ट बड़े समुद्र में भी कईबार मैं उत्पन्न हुआ तो भी शीतलजल द्वारा मेरी तृष्णा न छिप शकी । [ ६४ ] मन, वचन और काया इन तीनों प्रकार से कामभोग के विषय सुख के अतुल

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