Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 208
________________ तन्दुलवैचारिक- १५ २०७ संतान के रूप में उत्पन्न करने में समर्थ होती है । १२ साल में अधिकतम गर्भकाल में एक जीव के ज्यादा से ज्यादा शत पृथक्त्व (२०० से ९००) पिता हो शकते है । 1 [१६] दाँयी कुक्षी पुरुष की और बाँई कुक्षी स्त्री के निवास की जगह होती है । जो दोनों की मध्य में निवास करता है वो नपुंसक जीव होता है । तिर्यंच योनि में गर्भ की उत्कृष्ट स्थिति आठ साल की मानी जाती है । 1 [१७] निश्चय से यह जीव माता पिता के संयोग से गर्भ में उत्पन्न होता है । वो पहले माता की रज और पिता के शुक्र के कलुष और किल्बिष का आहार करके रहता है । [१८] पहले सप्ताह में जीव तरल पदार्थ के रूप में, दुसरे सप्ताह में दहीं जैसे जमे हुए, उसके बाद लचीली माँस-पेशी जैसा और फिर ठोस हो जाता है । [१९] उसके बाद पहले मास में वो फूले हुए माँस जैसा, दुसरे महिने में माँसपिंड़ जैसा घनीभूत होता है । तीसरे महिने में वो माता को इच्छा उत्पन्न करवाता है । चौथे महिने में माता के स्तन को पुष्ट करता है । पाँचवे महिने में हाथ, पाँव, सर यह पाँच अंग तैयार होते है । छठ्ठे महिने में पित्त और लहू का निर्माण होता है । और फिर बाकी अंग- उपांग बनते है । साँतवे महिने में ७०० नस, ५०० माँस-पेशी, नौ धमनी और सिर एंव मुँह के अलावा बाकी बाल के ९९ लाख रोमछिद्र बनते है । सिर और दाढ़ी के बाल सहित साढे तीन करोड़ रोमकूप उत्पन्न होते है । आँठवे महिने में प्रायः पूर्णता प्राप्त करता है । [२०] हे भगवन् ! क्या गर्भस्थ जीव को मल-मूत्र, कफ, श्लेष्म, वमन, पित्त, वीर्य या लहू होते है ? यह अर्थ उचित नहीं है अर्थात् ऐसा नहीं होता । हे भगवन् ! किस वजह से आप ऐसा कह रहे हो कि गर्भस्थ जीव को मल, यावत् लहू नहीं होता । गौतम ! गर्भस्थ जीव माता के शरीर से आहार करता है । उसे नेत्र, चक्षु, घ्राण, रस के और स्पर्शन इन्द्रिय के रूप में हड्डियाँ, मज्जा, केश, मूँछ, रोम और नाखून के रूप में परिणमाता है । इस वजह से ऐसा कहा है कि गर्भस्थ जीव को मल यावत् लहू नहीं होता । [२१] हे भगवन् ! गर्भस्थ जीव मुख से कवल आहार करने के लिए समर्थ है क्या ? हे गौतम ! यह अर्थ उचित नहीं है । हे भगवन् ऐसा क्यो कहते हो ? हे गौतम ! गर्भस्थ जीव सभी ओर से आहार करता है । सभी ओर से परिणमित करता है । सभी ओर से साँस लेता है और छोड़ता है । निरन्तर आहार करता है और परिणमता है । हंमेशा साँस लेता है और बाहर नीकालता है। वो जीव जल्द आहार करता है और परिणमाता है । जल्द साँस ता है और छोड़ता है । माँ के शरीर से जुड़े हुए पुत्र के शरीर को छूती एक नाड़ी होती है जो माँ के शरीर रस की ग्राहक और पुत्र के जीवन रस की संग्राहक होती है । इसलिए वो जैसे आहार ग्रहण करता है वैसा ही परिणाता है । पुत्र के शरीर के साथ जुड़ी हुई और माता के शरीर को छूनेवाली ओर एक नाड़ी होती है । उसमें समर्थ गर्भस्थ जीव मुख से कवल आहार ग्रहण नहीं करता । [२२] हे भगवन् ! गर्भस्थ जीव कौन-सा आहार करेगा ? हे गौतम! उसकी माँ जो तरह-तरह की रसविगई - कडुआ, तीखा, खट्टा द्रव्य खाए उसके ही आंशिक रूप में ओजाहार

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