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तन्दुलवैचारिक- ३०
वो कवलाहार नहीं करता ।
[३१] इस तरह दुःखी जीव गर्भ में शरीर प्राप्त करके अशुचि प्रदेश में निवास करता है ।
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[३२] हे आयुष्मान् ! तब नौ महिने में माँ उसके द्वारा उत्पन्न होनेवाले गर्भ को चार में से किसी एकरूप में जन्म देती है । वो इस तरह से स्त्री, पुरुष, नपुंसक या माँसपिंड़ । [३३] यदी शुक्र कम और रज ज्यादा हो तो स्त्री, और यदी रज कम और शुक्र ज्यादा हो तो पुरुष,
[३४] रज और शुक्र दोनो समान मात्रा में हो तो नपुंसक उत्पन्न होता है और केवल स्त्री रज की स्थिरता हो तो माँसपिंड उत्पन्न होता है ।
[३५] प्रसव के समय बच्चा सर या पाँव से नीकलता है । यदि वो सीधा बाहर नीकले तो सकुशल उत्पन्न होता है लेकिन यदि वो तीर्छा हो जाए तो मर जाता है ।
[३६] कोइ पापात्मा अशुचि प्रसूत और अशुचि रूप गर्भवास में उत्कृष्ट से १२ साल तक रहता है ।
[३७] जन्म और मौत के समय जीव जो दुःख पाता है उससे विमूढ़ होनेवाला जीव अपने पूर्वजन्म का स्मरण नहीं कर शकता । योनि मुख से बाहर
[३८] तब रोते हुए ओर अपनी माता के शरीर को पीड़ा देते हुए नीकलता है ।
[३९] गर्भगृह में जीव कुंभीपाक नरक की तरह विष्ठा, मल-मूत्र आदि अशुचि स्थान में उत्पन्न होते है ।
[४०] जिस तरह विष्ठा में कृमि उत्पन्न होते है उसी तरह पुरुष का पित्त, कफ, वीर्य, और मूत्र के बीच जीव उत्पन्न होता है ।
लहू
[४१] उस जीव का शुद्धिकरण किस तरह हो जिसकी उत्पत्ति ही शुक्र और लहू के समूह हुई हो । मे
[४२] अशुचि से उत्पन्न होनेवाले और हमेशा दुर्गन्धवाले विष्ठा से भरे हुए और हंमेशा शुचि की अपेक्षा करनेवाले इस शरीर पर गर्व कैसा ?
[४३] हे आयुष्मान् ! इस प्रकार से उत्पन्न होनेवाले जीव की क्रम से दश अवस्थाएं बताई गई है । वो इस प्रकार है-
[४४] बाला, क्रीडा, मंदा, बला, प्रज्ञा, हायनी, प्रपंचा, प्रग्भारा, मुन्मुखी और शायनी जीवनकाल की यह दस अवस्था बताई गई है ।
[४५] जन्म होते ही वह जीव प्रथम अवस्था को प्राप्त होता है । उसमें अज्ञानता वश वह सुख-दुःख और भूख को नहीं जानता ।
[४६] दुसरी अवस्था में वह विविध क्रीडा करता है, उसकी कामभोग में तीव्र मत नहीं होती ।
[ ४७ ] तीसरी अवस्था में वह पाँच तरीके के भोग भुगतने को निश्चे समर्थ होता है ।
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