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तन्दुलवैचारिक-१४३
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में मौत की तरह, जलाने में अग्नि की तरह और छिन्न-भिन्न करने में तलवार जैसी होती है ।
[१४४] स्त्री कटारी जैसी तीक्ष्ण, श्याही जैसी कालिमा, गहन वन जैसी भ्रमित करनेवाली, अलमारी और कारागार जैसी बँधनकारक, प्रवाहशील अगाध जल की तरह भयदायक होती है ।
[१४५] यह स्त्री सेंकड़ो दोष की गगरी, कई तरह के अपयश को फैलानेवाली कुटील हृदया, छलपूर्ण सोचवाली होती है ।
[१४६] यह स्त्रीयां एक में रत होती है, अन्य के साथ क्रीडा करती है, अन्य के साथ नयन लडाती है और अन्य के पार्क में जाकर ठहरती है । उसके स्वभाव को बुद्धिमान भी नहीं जान शकते ।
[१४७] गंगा के बालुकण, सागर का जल, हिमवत् का परिमाण, उग्रतप का फल, गर्भ से उत्पन्न होनेवाला बच्चा;
[१४८] शेर की पीठ के बाल, पेट में रहा पदार्थ, घोड़े को चलने की आवाज उसे शायद बुद्धिमान मानव जान शके लेकिन स्त्री के दिल को नहीं जान शकता ।
[१४९] इस तरह के गुण से युक्त यह स्त्री बंदर जैसी चंचल मनवाली और संसार में भरोसा करने के लायक नहीं है ।
[१५०] लोक में जैसे धान्य विहिन खल, पुष्परहित बगीचा, दुध रहित गाय, तेल रहित तल निरर्थक है वैसे स्त्री भी सुखहीन होने से निरर्थक है ।
[१५१] जितने समय में आँख बन्द करके खोली जाती है उतने समय में स्त्री का दिल और चित्त हजार बार व्याकुल हो जाता है ।
[१५२] मूरख, बुढे, विशिष्ट ज्ञान से हीन, निर्विशेष संसार में शूकर जैसी नीच प्रवृत्ति वाले को उपदेश निरर्थक है ।
[१५३] पुत्र, पिता और काफी-संग्रह किए गए धन से क्या फायदा ? जो मरते समय कुछ भी सहारा न दे शके ?
[१५४] मौत होने से पुत्र, मित्र या पत्नी भी साथ छोड़ देती है लेकिन सुउपार्जित धर्म ही मरण के समय साथ नहीं छोड़ता ।
[१५५] धर्म रक्षक है । धर्म शरण है, धर्म ही गति और आधार है । धर्म का अच्छी तरह से आचरण करने से अजर अमर स्थान की प्राप्ति होती है ।
[१५६] धर्म प्रीतिकर-कीर्तिकर-दीप्तिकर-यशकर-रतिकर-अभयकर-निवृत्तिकर और मोक्ष प्राप्ति में सहायक है ।
[१५७] सुकृतधर्म से ही मानव को श्रेष्ठ देवता के अनुपम रूप-भोगोपभोग, ऋद्धि और विज्ञान का लाभ प्राप्त होता है ।
[१५८] देवेन्द्र, चक्रीपद, राज्य, इच्छित भोग से लेकर निर्वाण पर्यन्त यह सब धर्म आचरण का ही फल है ।
[१५९] यहाँ सौ साल के आयुवाले मानव का आहार, उच्छ्वास, संधि, शिरा,