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भक्तपरिज्ञा-४५
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(तपस्वी) को चतुर्विध आहार का पच्चक्खाण करवाए ।
[४६] या फिर समाधि के लिए तीन प्रकार के आहार को आगार सहित पच्चक्खाण कराए । उसके बाद पानी भी अवसर देखकर त्याग करावें ।
[४७] उसके बाद शीश झुकार अपने दो हाथ को मस्तक पे मुकुट समान करके वो (अनशन करनेवाला) विधिवत् संवेग का अहेसास करवाते हुए सर्व संघ को खमाता है ।
[४८] आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, कुल और गण के साथ मैंने जो कुछ भी कषाय किए हो, वे सर्व मैं त्रिविध से (मन, वचन, काया से) खमाता हूँ।
[४९] हे भगवन् ! मेरे सभी अपराध के पद (गलती), मैं खमाता हूँ, इसलिए मुझे खमाओ मैं भी गुण के समूहवाले संघ को शुद्ध होकर खमाता हूँ।
[५०] इस तरह वंदन, खामणा और स्वनिन्दा द्वारा सो भव का उपार्जित कर्म एक पल में मृगावती रानी की तरह क्षय करते है ।
[५१] अब महाव्रत के बारे में निश्चल रहे हुए, जिनवचन द्वारा भावित मनवाले, आहार का पच्चक्खाण करनेवाला और तीव्र संवेग द्वारा मनोहार उस (अनसन करनेवाले) को;
[५२] अनशन की आराधना के लाभ से खुद को कृतार्थ माननेवाले उसको आचार्य महाराज पाप रूपी कादव का उल्लंघन करने के लिए लकड़ी समान शीक्षा देते है ।
[५३] बढा है कुग्रह (कदाग्रह) समान मूल जिसका ऐसे मिथ्यात्व को जड़ से उखेड़कर हे वत्स ! परमतत्त्व जैसे सम्यक्त्व को सूत्रनीति से सींच ।
[५४] और फिर गुण के अनुराग द्वारा वीतराग भगवान की तीव्र भक्ति कर । और प्रवचन के सार जैसे पाँच नमस्कार के लिए अनुराग कर ।
[५५] सुविहित साधु को हित को करनेवाले स्वाध्याय के लिए हमेशा उद्यमवंत हो। और नित्य पाँच महाव्रत की रक्षा आत्म साक्षी से कर ।
[५६] मोह द्वारा करके बड़े और शुभकर्म के लिए शल्य समान नियाण शल्य का तूं त्याग कर, और मुनीन्द्र के समूह में निन्दे गए इन्द्रिय समान मृगेन्द्रो को तू दम ।
[५७] निर्वाण सुख में अंतराय समान, नरक आदि के लिए भयानक पातकारक और विषय तृष्णा में सदा सहाय करनेवाले कषाय समान पिशाच का वध कर ।
[५८] काल नहीं पहुँचते और अब थोड़ा सा चारित्र बाकी रहते, मोह समान महा वैरी को विदारने के लिए खड्ग और लकड़ी समान हित शिक्षा को तूं सुन ।
[५९] संसार की जड़-बीज समान मिथ्यात्व का सर्व प्रकार से त्याग कर, सम्यकत्व के लिए दृढ चित्तवाला होकर नमस्कार के ध्यान के लिए कुशल बन जा ।
[६०] जिस तरह लोग अपनी तृष्णा द्वारा मृगतृष्णा को (मृगजल में) पानी मानते है, वैसे मिथ्यात्व से मूढ़ मनवाला कुधर्म से सुख की इच्छा रखता है ।
[६१) तीव्र मिथ्यात्व जीव को जो महादोष देते है, वे दोष अग्नि विष या कृष्ण सर्प भी नहीं पहुंचाते ।
[६२] मिथ्यात्व से मूढ़ चित्तवाले साधु प्रति द्वेष रखने समान पाप से तुरुमणि नगरी के दतराजा की तरह तीव्र दुःख इस लोक में ही पाते है ।
__ [६३] सर्व दुःख को नष्ट करनेवाले सम्यकत्व के लिए तुम प्रमाद मत करना, क्योंकि