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भक्तपरिज्ञा-१४ निर्गुणपन पहचाना है, ऐसे भव्य यति या गृहस्थ को भक्तपरिज्ञामरण के योग्य मानना चाहिए।
[१५] व्याधि, जरा और मरण समान मगरमच्छवाला, हमेशा जन्म समान पानी के समूहवाला, परिणाम में दारूण दुःख देनेवाला संसार रूपी समुद्र काफी दुरन्त है, यह खेद की बात है ।
[१६] पश्चाताप से पीड़ित, जिन्हे धर्म प्रिय है, दोष को निन्दने की तृष्णावाला और दोष एवम् दुःशीलपन से ऐसे पासत्यादिक भी अनसन के योग्य है ।
[१७] यह अनशन करके हर्ष सहित विनय द्वारा गुरु के चरणकमल के पास आकर हस्तकमल मुकुट रूप से ललाट से लगाकर गुरु की वंदना करके इस प्रकार कहता है ।
[१८] सत्पुरुष ! भक्त परिज्ञा रूप उत्तम जहाज पर चड़कर निर्यामक गुरु द्वारा संसार समान समुद्र में तैरने की मैं इच्छा रखता हूँ।
[१९] दया समान अमृत रस से सुन्दर वह गुरु भी उसे कहते है कि-(हे वत्स !) आलोचना लेकर, व्रत स्वीकार करके, सर्व को खमाने के बाद, भक्त परिज्ञा अनशन को अंगीकार कर ले ।
[२०] ईच्छं ! ऐसा कहकर भक्ति और बहुमान द्वारा शुद्ध संकल्पवाला, नष्ट हुए अनर्थवाला गुरु के चरण कमल की विधिवत् वंदना करके;
[२१] अपने शल्य का उद्धार करने की इच्छा रखनेवाला, संवेग (मोक्ष का अभिलाष) और उद्धेग (संसार छोड़ देने की इच्छा) द्वारा तीव्र श्रद्धावाला शुद्धि के लिए जो कुछ भी करे उसके द्वारा वह आत्मा आराधक बनता है ।
[२२] अब वो आलोयण के दोष से रहित, बच्चे की तरह बचपन के समय जैसा आचरण किया हो वैसा सम्यक् प्रकार से आलोचन करता है ।
[२३] आचार्य के समग्र गुण सहित आचार्य प्रायश्चित दे तब सम्यक् प्रकार से वह प्रायश्चित तप शुरु करके निर्मलभाववाला वह शिष्य फिर से कहता है ।
[२४] दारूण दुःख समान जलचर जीव के समूह से भयानक संसार समान समुद्र में से तारने के लिए समर्थ गुरु महाराज निर्विघ्न जहाज समान महाव्रत में आप हमारी स्थापना करे । (अर्थात् व्रत आरोपण करे)
[२५] जिसने कोप खंडन किया है वैसा अखंड महाव्रतवाला वह यति है, तो भी प्रव्रज्या व्रत की उपस्थापना के लिए वह योग्य है ।
२६] स्वामी की अच्छे तरीके से पालन की गई आज्ञा को जैसे चाकर विधवत् पूरा करके लौटाते है, वैसे जीवनभर चारित्र पालन करके वो भी गुरु को ऊसी प्रकार से यह कहते है ।
[२७] जिसने अतिचार सहित व्रत का पालन किया है और आकुट्टी (छल) दंड से व्रत खंडित किया है वैसे भी सम्यक् उपस्थित होनेवाले को उसे (शिष्य को) उपस्थापना योग्य कहा है । . [२८] उसके बाद महाव्रत समान पर्वत के बोज से नमित हुए मस्तकवाले उस शिष्य को सुगुरु विधि द्वारा महाव्रत की आरोपणा करते है ।
[२९] अब देशविरति श्रावक समकित के लिए रक्त और जिन वचन के लिए तत्पर