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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-५/२२९
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युक्त, सुसज्जित, सर्वविध अलंकारों से विभूषित पाँच सेनाएँ, पाँच सेनापति देव प्रस्थान करते हैं । फिर बहुत से अभियोगिक देव-देवियाँ अपने-अपने रूप, नियोग - सहित देवेन्द्र, देवराज शक्र के आगे पीछे यथाक्रम प्रस्थान करते हैं । तत्पश्चात् सौधर्मकल्पवासी अनेक देव-देवियाँ विमानारूढ होते हैं, देवेन्द्र, देवराज शक्र के आगे पीछे तथा दोनों ओर प्रस्थान करते हैं । इस प्रकार विमानस्थ देवराज शक्र पाँच सेनाओं से परिवृत ८४००० सामानिक देवों आदि से संपरिवृत, सब प्रकार की ऋद्धि-के साथ, वाद्य-निनाद के साथ सौधर्मकल्प के बीचोंबीच होता हुआ, दिव्य देव ऋद्धि उपदर्शित करता हुआ, जहाँ सौधर्मकल्प का उत्तरी निर्याण मार्ग आता है । वहाँ आकर एक-एक लाख योजन-प्रमाण विग्रहों द्वारा आगे बढ़ता तिर्यक्-असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हुआ, जहाँ नन्दीश्वर द्वीप है, आग्नेय कोणवर्ती रतिकर पर्वत है, वहाँ आता है ।
फिर शक्रेन्द्र दिव्य देव ऋद्धि का दिव्य यान - विमान का प्रतिसंहरण करता है - जहाँ भगवान् तीर्थंकर का जन्म-भवन होता है, वहाँ आता है । तीन बार प्रदक्षिणा करता है । तीर्थंकर के जन्म-भवन के ईशान कोण में अपने दिव्य विमान को भूमितल से चार अंगुल ऊँचा ठहराता है । उस दिव्य यान से नीचे उतरता है यावत् सब नीचे उतरते है । तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र अपने सहवर्ती देव-समुदाय से संपरिवृत, सर्व ऋद्धि-वैभव-समायुक्त, नगाड़ों
गूंजते हुए निर्घोष के साथ, तीर्थंकर थे और उनकी माता थी, वहाँ आता है । देखते ही प्रणाम करता है । प्रदक्षिणा करता है । वैसा कर, हाथ जोड़, अंजलि बाँधे तीर्थंकर की माता को कहता है - रत्नकुक्षिधारिके, जगत्प्रदीपदायिके-आपको नमस्कार हो । आप धन्य, पुण्य एवं कृतार्थ - हैं । मैं देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान् तीर्थंकर का जन्म महोत्सव मनाऊँगा, अतः आप भयभीत मत होना ।' यों कहकर वह तीर्थंकर की माता को अवस्वापिनी निद्रा में सुला देता है । तीर्थंकर - सदृश प्रतिरूपक विकुर्वणा करता है । शक्र फिर पाँच शक्रों की विकुर्वणा करता है - एक शक्र भगवान् तीर्थंकर को हथेलियों के संपुट द्वारा उठाता है, एक छत्र धारण करता है, दो चंवर डुलाते हैं, एक हाथ में वज्र लिये आगे चलता है । तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र अन्य अनेक भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवदेवियों से घिरा हुआ, सब प्रकार ऋद्धि से शोभित, उत्कृष्ट, त्वरित देव- गति से चलता हुआ, जहाँ मन्दरपर्वत, पण्डकवन, अभिषेक - शिला एवं अभिषेक सिंहासन है, वहाँ आता है, पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर बैठता है ।
[२३०] उस काल, उस समय हाथ में त्रिशूल लिये, वृषभ पर सवार, सुरेन्द्र, उत्तरार्धलोकाधिपति, अठ्ठाईस लाख विमानों का स्वामी, निर्मल वस्त्र धारण किये देवेन्द्र, देवराज ईशान मन्दर पर्वत पर आता है । शेष वर्णन सौधर्मेन्द्र शक्र के सदृश है । अन्तर इतना है— घण्टा का नाम महाघोषा है । पदातिसेनाधिपति का नाम लघुपराक्रम है, विमानकारी देव का नाम पुष्पक है । उसका निर्याण मार्ग दक्षिणवर्ती है, उत्तरपूर्ववर्ती रतिकर पर्वत है । वह भगवान् तीर्थंकर को वन्दन करता है, नमस्कार करता है, उनकी पर्युपासना करता है । अच्युतेन्द्र पर्यंत बाकी के इन्द्र भी इसी प्रकार आते हैं, उन सबका वर्णन पूर्वानुरूप है । इतना अन्तर है- यथा
[२३१] सौधर्मेन्द्र शक्र के ८४०००, ईशानेन्द्र के ८००००, सनत्कुमारेन्द्र के