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पुष्पिका - ३/५
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इन तापसों में से मैं दिशाप्रोक्षिक तापसों में दिशाप्रोक्षिक रूप से प्रव्रजित होऊँ और इस प्रकार का अभिग्रह अंगीकार करूँगा - यावज्जीवन के लिए निरंतर षष्ठ- षष्ठभक्त पूर्वक दिशा चक्रवाल तपस्या करता हुआ सूर्य के अभिमुख भुजाएँ उठाकर आतापनाभूमि में आतापना लूँगा ।' संकल्प करके यावत् कल जाज्वल्यमान सूर्य के प्रकाशित होने पर बहुत से लोह - कड़ाहा आदि को लेकर यावत् दिशाप्रोक्षिक तापस के रूप में प्रव्रजित हो गया । प्रव्रजित होने के साथ अभिग्रह अंगीकार करके प्रथम षष्ठक्षपण तप अंगीकार करके विचरने लगा । तत्पश्चात् ऋषि सोमिल ब्राह्मण प्रथम षष्ठक्षपण के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरे । फिर उसने वल्कल वस्त्र पहने और जहाँ अपनी कुटियां थी, वहाँ आये । वहाँ से -किढिण बांस की छबड़ी और कावड़ को लिया, पूर्वदिशा का पूजन किया और कहा- हे पूर्व दिशा के लोकपाल सोम महाराज ! प्रस्थान में प्रस्थित हुए मुझ सोमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें और यहाँ जो भी कन्द, मूल, छाल, पत्ते, पुष्प, फूल, बीज और हरी वनस्पतियाँ हैं, उन्हें लेने की आज्ञा दें ।' यों कहकर सोमिल ब्रह्मर्षि पूर्व दिशा की ओर गया और वहां जो भी कन्द, मूल, यावत् हरी वनस्पति आदि थी उन्हें ग्रहण किया और कावड़ में रखी, बांस की छबड़ी में भर लिया । फिर दर्भ, कुश तथा वृक्ष की शाखाओं को मोड़कर तोड़े हुए पत्ते और समिधाकाष्ठ
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अपनी कुटियां पे आये । वेदिका का प्रमार्जन किया, उसे लीपकर शुद्ध किया । तदनन्तर डाभ और कलश हाथ में लेकर गंगा महानदी आए और उसके जल से देह शुद्ध की । अपनी पर पानी सींचा और आचमन आदि करके स्वच्छ और परम शुचिभूत होकर देव और पितरों संबंधी कार्य सम्पन्न करके डाभ सहित कलश को हाथ में लिए गंगा महानदी के बाहर निकले । कुटिया में आकर डाभ, कुश और बालू से वेदी का निर्माण किया, सर और अरणि तैयार की। अनि सुलगाई । तब उसमें समिधा डालकर और अधिक प्रज्वलित की और फिर अग्नि की दाहिनी ओर ये सात वस्तुएं रखीं
[६] सकथ वल्कल, स्थान, शैयाभाण्ड, कमण्डलु, लकड़ी का डंडा और अपना शरीर । फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु तैयार किया तथा नित्य यज्ञ कर्म किया । अतिथिपूजा की और उसके बाद स्वयं आहार ग्रहण किया ।
[७] तत्पश्चात् उन सोमिल ब्रह्मर्षि ने दूसरा षष्ठक्षपण अंगीकार किया । पारणे के दिन भी आतापनाभूमि से नीचे उतरे, वल्कल वस्त्र पहने यावत् आहार किया, इतना विशेष है कि इस बार वे दक्षिण दिशा में गए और कहा - 'हे दक्षिण दिशा के यम महाराज ! प्रस्थान के लिए प्रवृत्त सौमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें और यहाँ जो कन्द, मूल आदि हैं, उन्हें लेने की आज्ञा दें, ऐसा कहकर दक्षिण में गमन किया । तदनन्तर उन सोमिल ब्रह्मर्षि ने तृतीय बेला किया। पारणे के दिन भी पूर्वोक्त सव विधि की । किन्तु पश्चिम दिशा की पूजा की । कहा- 'हे पश्चिम दिशा के लोकपाल वरुण महाराज ! परलोक - साधना में प्रवृत्त मुझ सोमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें' इत्यादि इसके बाद चतुर्थ वेला तप किया । पारणा के दिन पूर्ववत् सारी विधि की । विशेष यह है कि इस बार उत्तर दिशा की पूजा की और इस प्रकार प्रार्थना की- 'हे उत्तर दिशा के लोकपाल वैश्रमण महाराज ! परलोकसाधना में प्रवृत्त मुझ सोमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें'