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पुष्पिका-३/७
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पुनः वापिस लौट गया । इसके बाद वल्कल वस्त्रधारी सोमिल ने सूर्य के प्रकाशित होने पर अपने कावड़ उपकरण आदि लिए । काष्ठमुद्रा से मुख को बांधा और मुख बांधकर उत्तर की
ओर मुख करके उत्तर दिशा में चल दिये । तदनन्तर वह सोमिल ब्रह्मर्षि तीसरे दिन अपराह्न काल में जहां उत्तम अशोक वृक्ष था, वहां आए । कावड़ रखी । बैठने के लिए वेदी बनाई
और दर्भयुक्त कलश को लेकर गंगा महानदी में अवगाहन किया । अग्रिहवन आदि किया फिर काठमुद्रा से मुख को बांधकर मौन बैठ गए । तत्पश्चात् मध्यरात्रि में सोमिल के समक्ष पुनः एक देव प्रकट हुआ और उसने उसी प्रकार कहा-'हे प्रव्रजित सोमिल ! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है' यावत् वह देव वापिस लौट गया । इसके बाद सूर्योदय होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी सोमिल कावड़ और पात्रोपकरण लेकर यावत् काष्ठमुद्रा से मुख को बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा की ओर चल दिया ।
तदनन्तर चलते-चलते सोमिल ब्रह्मर्षि चौथे दिवस के अपराह्न काल में जहाँ वट वृक्ष था, वहाँ आए । नीचे कावड़ रखी । इत्यादि पूर्ववत् । मध्यरात्रि के समय पुनः सोमिल के समक्ष वह देव प्रकट हुआ और उसने कहा-'सोमिल ! तुम्हारी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है ।' ऐसा कहकर वह अन्तर्धान हो गया । रात्रि के बीतने के बाद और जाज्वल्यमान तेजयुक्त सूर्य के प्रकाशित होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी वह यावत् उत्तर दिशा में चल दिए । तत्पश्चात् वह सोमिल ब्रह्मर्पि पाँचवें दिन के चौथे प्रहर में जहां उदुम्बर का वृक्ष था, वहाँ आए । कावड़ रखी । यावत् मौन होकर बैठ गए । मध्यरात्रि में पुनः सोमिल ब्राह्मण के समीप एक देव प्रकट हुआ और कहा-'हे सोमिल ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है । इसके बाद देव ने दूसरी
और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा-तब सोमिल ने देव से पूछा-देवानुप्रिय ! मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या क्यों है ?'
देव ने कहा-तुमने पहले पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् से पंच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया था । किन्तु इसके बाद सुसाधुओं के दर्शन उपदेश आदि का संयोग न मिलने और मिथ्यात्व पर्यायों के बढ़ने से अंगीकृत श्रावकधर्म को त्याग दिया । यावत् तुमने दिशाप्रोक्षिक प्रव्रज्या धारण की । यावत् जहाँ अशोक वृक्ष था, वहाँ आए और कावड़ रख वेदी आदि बनाई । यावत मध्यरात्रि के समय मैं तुम्हारे समीप आया और तुम्हें प्रतिबोधित किया-'हे सोमिल ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है ।' किन्तु तुमने उस पर ध्यान नहीं दिया और मौन ही रहे । इस प्रकार चार दिन तक समझाया, आज पांचवें दिवस चौथे प्रहर में इस उदुम्बर वृक्ष के नीचे आकर तुमने अपना कावड़ रखा । यावत् तुम मौन होकर बैठ गए । इस प्रकार से हे देवानुप्रिय ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है । यह सब सुनकर सोमिल ने देव से कहा-'अब आप ही बताइए कि मैं कैसे सुप्रव्रजित बनूँ ?' देव ने सोमिल ब्राह्मण से कहा-'देवानुप्रिय ! यदि तुम पूर्व में ग्रहण किए हुए पाँच अणुव्रत
और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावकधर्म को स्वयंमेव स्वीकार करके विचरण करो तो तुम्हारी यह प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या होगी । इसके बाद देव ने सोमिल ब्राह्मण को वन्दन-नमस्कार किया और अन्तर्धान हो गया । पश्चात् सोमिल ब्रह्मर्षि देव के कथनानुसार पूर्व में स्वीकृत पंच अणुव्रतों