Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 158
________________ पुष्पिका-४/८ १५७ विकुर्वणा की तथा सूर्याभ देव के समान नाट्य-विधियों को दिखाकर वापिस लौट गई । गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया और प्रश्न किया-भगवन् ! उस बहुपुत्रिका देवी की वह दिव्य देवऋद्धि, द्युति और देवानुभाव कहाँ गया ? गौतम ! वह देव-ऋद्धि आदि उसी के शरीर से निकली थी और उसी के शरीर में समा गई । गौतमस्वामी ने पुनः पूछा-भदन्त ! उस बहुपुत्रिका देवी को वह दिव्य देव-ऋद्धि आदि कैसे मिली, कैसे उसके उपभोग में आई ? गौतम ! उस काल और उस समय वाराणसी नगरी थी । आम्रशालवन चैत्य था । भद्र सार्थवाह रहता था, जो धन-धान्यादि से समृद्ध यावत् दूसरों से अपरिभूत था भद्र सार्थवाह की पत्नी सुभद्रा थी । वह अतीव सुकुमाल अंगोपांगवाली थी, रूपवती थी । किन्तु वन्ध्या होने से उसने एक भी सन्तान को जन्म नहीं दिया । वह केवल जानु और कूपर की माता थी । किसी एक समय मध्य रात्रि में पारिवारिक स्थिति का विचार करते हुए सुभद्रा को इस प्रकार का मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-'मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल मानवीय भोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही हूं, किन्तु आज तक मैंने एक भी बालक या बालिका का प्रसव नहीं किया है । वे माताएँ धन्य हैं यावत् पुण्यशालिनी हैं, उन माताओं ने अपने मनुष्यजन्म और जीवन का फल भलीभांति प्राप्त किया है, जो अपनी निज की कुक्षि से उत्पन्न,स्तन के दूध के लोभी, मन को लुभानेवाली वाणी का उच्चारण करनेवाली, तोतली बोली बोलनेवाली, स्तन मूल और कांख के अंतराल में अभिसरण करनेवाली सन्तान को दूध पिलाती हैं । उसे गोद में बिठलता हैं, मधुर-मधुर संलापों से अपना मनोरंजन करती हैं । लेकिन मैं ऐसी भाग्यहीन, पुण्यहीन हूँ कि संतान सम्बन्धी एक भी सुख मुझे प्राप्त नहीं है ।' इस प्रकार के विचारों से निरुत्साह-होकर यावत् आर्तध्यान करने लगी । उस काल और उस समय में ईर्यासमिति यावत् उच्चार-प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाणपरिष्ठापनासमिति से समित, मनोगुप्ति, यावत् कायगुप्ति से युक्त, इन्द्रियों का गोपन करनेवाली, गुप्त ब्रह्मचारिणी बहुश्रुता, शिष्याओं के बहुत बड़े परिवारवाली सुव्रता आर्या विहार करती हुई वाराणसी नगरी आई । कल्पानुसार यथायोग्य अवग्रह आज्ञा लेकर संयम और तप से आत्मा को परिशोधित करती हुई विचरने लगी । उन सुव्रता आर्या का एक संघाड़ा वाराणसी नगरी के सामान्य, मध्यम और उच्च कुलों में सामुदायिक भिक्षाचर्या के लिए परिभ्रमण करता हुआ भद्र सार्थवाह के घर में आया । तब सुभद्रा सार्थवाही हर्षित और संतुष्ट होती हुई शीघ्र ही अपने आसन से उठकर खड़ी हुई । सात-आठ डग उनके सामने गई और वन्दन-नमस्कार किया । फिर विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार से प्रतिलाभित कर इस प्रकार कहा-आर्याओ ! मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगोपभोग भोग रही हूँ, मैंने आज तक एक भी संतान का प्रसव नहीं किया है । वे माताएँ धन्य हैं, यावत् मैं अधन्या पुण्यहीना हूँ कि उनमें से एक भी सुख प्राप्त नहीं कर सकी हूँ । देवानुप्रियो ! आप बहुत ज्ञानी हैं, और बहुत से ग्रामों, आकरों, नगरों यावत् देशों में घूमती हैं । अनेक राजा, ईश्वर, यावत् सार्थवाह आदि के घरों में भिक्षा के लिए प्रवेश करती हैं । तो क्या कहीं कोई विद्याप्रयोग, मंत्रप्रयोग, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म, औषध अथवा भेषज ज्ञात किया है, देखा-पढ़ा है जिससे मैं बालक या

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