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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
को अंगीकार करके विचरण करने लगे ।
__ तत्पश्चात् सोमिल ने बहुत से चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, यावत् अर्धमासक्षपण, मासक्षपण रूप विचित्र तपःकर्म से अपनी आत्मा को भावित करते हुए श्रमणोपासक पर्याय का पालन किया । अंत में अर्धमासिक संलेखना द्वारा आत्मा की आराधना कर और तीस भोजनों का अनशन द्वारा त्याग कर किन्तु पूर्वकृत उस पापस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण न करके सम्यक्त्व की विराधना के कारण कालमास में काल किया । शुक्रावतंसक विमान की उपपातसभा में स्थित देवशैया पर यावत् अंगुल के असंख्यातवें भाग की जघन्य अवगाहना से शुक्रमहाग्रह देव के रूप में जन्म लिया । वह शुक्रमहाग्रह देव यावत् पांचों पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त हुआ । -हे गौतम ! इस प्रकार से उस शुक्रमहाग्रह देव ने वह दिव्य देवऋद्धि, द्युति यावत् दिव्य प्रभाव प्राप्त किया है । उसकी वहाँ एक पल्योपम की स्थिति है। भदन्त ! वह शुक्रमहाग्रह देव आयु, भव और स्थिति का क्षय होने के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर कहां जाएगा ? गौतम ! वह शुक्रमहाग्रह देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा । आयुष्मन् जम्बू ! इस प्रकार श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त महावीर ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन में इस भाव का निरूपण किया है, ऐसा मैं कहता हूं ।
अध्ययन-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-४-बहुपुत्रिका) [८] भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान् महावीर ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है तो भदन्त ! चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । गुणशिलक चैत्य था। राजा श्रेणिक था । स्वामी का पदार्पण हुआ । परिषद् निकली । उस काल और उस समय में सौधर्मकल्प के बहुपुत्रिक विमान की सुधर्मासभा में बहुपुत्रिका देवी बहुपुत्रिक सिंहासन पर ४००० सामानिक देवियों तथा ४००० महत्तरिका देवियों के साथ सूर्याभदेव के समान नानाविध दिव्य भोगों को भोगती हुई विचरण कर रही थी । उसने अपने विपुल अवधिज्ञान से इस केवलकल्प जम्बूद्वीप को देखा और भगवान् महावीर को देखा । सूर्याभ देव के समान यावत नमस्कार करके अपने उत्तम सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ गई । फिर सूर्याभदेव के समान उसने अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और उन्हें सुस्वरा घंटा बजाने की आज्ञा दी । देव-देवियों को भगवान के दर्शनार्थ चलने की सूचना दी । पुनः आभियोगिक देवों को बुलाया और विमान की विकुर्वणा करने की आज्ञा दी । वह यान-विमान १००० योजन विस्तीर्ण था । सूर्याभदेव के समान वह अपनी समस्त ऋद्धि-वैभव के साथ यावत् उत्तर दिशा के निर्याणमार्ग से निकलकर १००० योजन ऊँचे वैक्रिय शरीर को बनाकर भगवान् के समवसरण में उपस्थित हुई । भगवान् ने धर्मदेशना दी । पश्चात् उस बहुपुत्रिका देवी ने अपनी दाहिनी भुजा पसारी- १०८ देवकुमारों की ओर वायीं भुजा फैलाकर १०८ देवकुमारिकाओं की विकुर्वणा की । इसके बाद बहुत से दारक-दारिकाओं तथा डिम्भक-डिम्भिकाओं की