Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 178
________________ चतुःशरण - ४१ १७७ शोभायमान शरीरवाला ( वह जीव) इस जिनकथित धर्म के शरण को अंगीकार करने के लिए इस तरह बोलते है [४२] अति उत्कृष्ट पुण्य द्वारा पाया हुआ, कुछ भाग्यशाली पुरुषों ने भी शायद न पाया हो, केवली भगवान ने बताया हुआ वो धर्म मैं शरण के रूप में अंगीकार करता हूँ । [४३] जो धर्म पाकर या बिना पाए भी जिसने मानव और देवता के सुख पाए, लेकिन मोक्षसुख तो धर्म पानेवाले को ही मिलता है, वह धर्म मुझे शरण हो । [४४] मलीन कर्म का नाश करनेवाले, जन्म को पवित्र बनानेवाले, अधर्म को दूर करनेवाले इत्यादिक परिणाम में सुन्दर जिन धर्म मुझे शरण रूप हो । [४५] तीन काल में भी नष्ट न होनेवाले; जन्म, जरा, मरण और सेंकड़ों व्याधि का शमन करनेवाले अमृत की तरह बहुत लोगो को इष्ट ऐसे जिन मत का मैं शरण अंगीकार करता हूँ । [४६] काम के उन्माद को अच्छी तरह से शमानेवाले, देखे हुए और न देखे हुए पदार्थ का जिसमें विरोध नहीं कीया है वैसे और मोक्ष के सुख समान फल को देने में अमोघ यानि सफल धर्म को मैं शरण रूप में अंगीकार करता हूँ । [ ४७ ] नरकगति के गमन को रोकनेवाले, गुण के समूहवाले अन्य वादी द्वारा अक्षोभ्य और काम सुभट को हणनेवाले धर्म को शरण रूप से मैं अंगीकार करता हूँ । [४८] देदीप्यमान, उत्तम वर्ण की सुन्दर रचना समान अलंकार द्वारा महत्ता के कारणभूत से महामूल्यवाले, निधान समान अज्ञान रूप दारिद्र को हणनेवाले, जिनेश्वरो द्वारा उपदिष्ट ऐसे धर्म को मैं स्वीकार करता हूँ । [४९] चार शरण अंगीकार करने से, ईकट्ठे होनेवाले सुकृत से विकस्वर होनेवाली रोमराजी युक्त शरीरवाले, किए गए पाप की निंदा से अशुभ कर्म के क्षय की इच्छा रखनेवाला जीव ( इस प्रकार ) कहता है [५० ] जिनशासन में निषेध किए हुए इस भव में और अन्य भव में किए मिथ्यात्व के प्रवर्तन समान जो अधिकरण (पापक्रिया), वे दुष्ट पाप की मैं गर्हा करता हूँ यानि गुरु की साक्षी से उसकी निन्दा करता हूँ । [५१] मिथ्यात्व समान अंधेरे में अंध हुए, मैं अज्ञान से अरिहंतादिक के बारे में जो अवर्णवाद, विशेष किया हो उस पाप को मैं गर्हता हूँ - निन्दा करता हूँ । [५२ ] श्रुतधर्म, संघ और साधु में शत्रुपन में जो पाप का मैंने आचरण किया है वे और दुसरे पाप स्थानक में जो पाप लगा हो वे पापों की अब मैं गर्हा करता हूँ । [ ५३ ] दुसरे भी मैत्री करुणादिक के विषय समान जीव में परितापनादिक दुःख पैदा किया हो उस पाप की मैं अब निन्दा करता हूँ । [५४] मन, वचन और काया द्वारा करने करवाने और अनुमोदन करते हुए जो आचरण किया गया, जो धर्म के विरुद्ध और अशुद्ध ऐसे सर्व पाप उसे मैं निन्दता हूँ । [ ५५ ] अब दुष्कृत की निन्दा से कडे पाप कर्म का नाश करनेवाले और सुकृत के राग से विकस्वर होनेवाली पवित्र रोमराजीवाले वह जीव प्रकटरूप से ऐसा कहता है [ ५६ ] अरिहंतो का जो अरिहंतपन, सिद्धो का जो सिद्धपन, आचार्य के जो आचार 9 12

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