Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 186
________________ महाप्रत्याख्यान- 9 नमो नमो निम्मलदंसणस्स २६ महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक- ३- हिन्दी अनुवाद १८५ [१] अब मैं उत्कृष्ट गतिवाले तीर्थंकर को, सर्व जिन को, सिद्ध को और संयत (साधु) को नमस्कार करता हूँ । [२] सर्व दुःख रहित ऐसे सिद्ध को और अरिहंत को नमस्कार हो, जिनेश्वर भगवान ने प्ररूपित किया हुए तत्त्वो सभी की मैं श्रद्धा करता हुं और पाप के योग का पच्चक्खाण करता हूँ । [३] जो कुछ भी बूरा आचरण मुजसे हुआ हो उन सबकी मैं सच्चे भाव से निन्दा करता हूँ, और मन, वचन और काया इन तीन प्रकार से सर्व आगार रहित सामायिक अब मैं करता हूँ। [४] बाह्य उपाधि (वस्त्रादिक), अभ्यंतर उपधि ( क्रोधादिक), शरीर आदि, भोजन सहित सभी को मन, वचन, काया से त्याग करता हूँ । [५] राग का वंध, द्वेप, हर्ष, दीनता, आकुलपन, भय, शोक, रति और मद को मैं वोसिराता हूँ । [६] रोप द्वारा, कदाग्रह द्वारा, अकृतघ्नता द्वारा और असत् ध्यान द्वारा जो कुछ भी मैं अविनय पन से बोला हूँ तो त्रिविधे त्रिविधे मैं उसको खमाता हूँ । [७] सर्व जीव को खमाता हूँ । सर्व जीव मुझे क्षमा करो, आश्रव को वोसिराते हुए मैं समाधि (शुभ) ध्यान को मैं आरंभ करता हूँ । [८] जो निन्दने को योग्य हो उसे मैं निन्दता हूँ, जो गुरु की साक्षी से निन्दने को योग्य हो उसकी मैं गर्हा करता हूँ और जिनेश्वर ने जो निषेध किया है उस सर्व की मैं आलोचना करता हूँ । [९] उपधी, शरीर, चतुर्विध आहार और सर्व द्रव्य के बारे में ममता इन सभी को जानकर मैं त्याग करता हूँ । [१०] निर्ममत्व के लिए उद्यमवंत हुआ मैं ममता का समस्त तरह से त्याग करता हूँ। एक मुझे आत्मा का ही आलम्बन है; शेष सभी को मैं वोसिराता (त्याग करता) हुं । [११] मेरा जो ज्ञान है वो मेरा आत्मा है, आत्मा ही मेरा दर्शन और चारित्र है, आत्मा खाण है । आत्मा ही मेरा संयम और आत्मा ही मेरा योग है । [१२] मूलगुण और उत्तरगुण की मैंने प्रमाद से आराधन न कि हो तो उन सब अनाराधक भाव की अब मैं निन्दा करता हूँ और आगामी काल के लिए होनेवाले उन अनाराधन भाव से मैं वापस मुँड़ता हूँ । [१३] मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, और मैं भी किसीका नही हूँ ऐसे अदीन चित्तवाला आत्मा को शिक्षीत करें ।

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