Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 182
________________ आतुरप्रत्याख्यान - २० १८१ [२०] बाहरी अभ्यंतर उपधि और भोजन सहित शरीर आदि उन सबको भाव को मैं मन, वचन, काया से वोसिराता (त्याग करता हूँ । [२१] इस प्रकार से सभी प्राणी के आरम्भ को, अखिल (झूठ ) वचन को, सर्व अदत्तादान - चोरी को, मैथुन और परिग्रह का पच्चक्खाण करता हूँ । [२२] मेरी सभी जीव से मैत्री है । किसी के साथ मुझे वैर नहीं है । वांच्छनाका त्याग करके मैं समाधि रखता हूँ । [२३] राग को, बन्धन को, द्वेष और हर्ष को, रांकपन को, चपलपन को, भय को, शोक को, रति को, अरति को मैं वोसिराता ( त्याग करता हूँ । [२४] ममता रहितपन में तत्पर होनेवाला मैं ममता का त्याग करता हूँ, और फिर मुझे आत्मा आलम्बन भूत है, दुसरी सभी चीज को वोसिराता हूँ । [२५] मुझे ज्ञानमें आत्मा, दर्शनमें आत्मा, चारित्रमें आत्मा, पच्चक्खाणमें आत्मा और संजम योग में भी आत्मा (आलम्बनरूप ) हो । [२६] जीव अकेला जाता है, यकीनन अकेला उत्पन्न होता है, अकेले को ही मरण प्राप्त होता है, और कर्मरहित होने के बावजूद अकेला ही सिद्ध होता है । [२७] ज्ञान, दर्शन सहित मेरी आत्मा एक शाश्वत है, शेष सभी बाह्य पदार्थ मेरे लिए केवल सम्बन्ध मात्र स्वरुपवाले है । [२८] जिसकी जड़ रिश्ता है ऐसी दुःख की परम्परा इस जीव ने पाई, उसके लिए सभी संयोग संबंधको मन, वचन, काया से मैं त्याग करता हूँ । [२९] प्रयत्न (प्रमाद) से जो मूल गुण और उत्तरगुण की मैंने आराधना नहीं की है उन सबकी मैं निन्दा करता हूँ । भावि की विराधना का प्रतिक्रमण करता हूँ । [३०] सात भय, आठ मद, चार संज्ञा, तीन गाव, तेत्तीस आशातना, राग, द्वेष को तथा [३१] असंयम, अज्ञान, मिथ्यात्व और जीव में एवं अजीव में सर्व ममत्त्व की मैं निन्दा करता हूँ और गर्हा करता हूँ । [३२] निन्दा करने के योग्य की मैं निन्दा करता हूँ और जो मेरे लिए गर्हा करने के योग्य है उन (पाप की ) गर्हा करता हूँ । सभी अभ्यंतर और बाहरी उपाधि का मैं त्याग करता [३३] जिस तरह वडील के सामने बोलनेवाला कार्य या अकार्य को सरलता से कहता है उसी तरह माया मृषावाद को छोडकर वह पाप को आलोए । [३४] ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र उन चारों में अचलायमान, धीर, आगम में कुशल, बताए हुए गुप्त रहस्य को अन्य को नहीं कहनेवाला (ऐसे गुरु के पास से आलोयणा लेनी चाहिए 1) [३५] हे भगवन् ! राग से, द्वेष से, अकृतज्ञत्व से और प्रमाद से मैने जो कुछ भी तुम्हारा अहित किया हो वो मैं मन, वचन, काया से खमाता हूँ । [३६] मरण तीन प्रकार का होता है-बाल मरण, बाल-पंड़ित मरण और पंड़ित मरण जिससे सीर्फ केवली मृत्यु पाते है ।

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