Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 172
________________ १७१ वहिदशा - १/३ हुए कहा - अहो भगवन् ! यह निषधकुमार इष्ट, इष्ट रूपवाला, कमनीय, कमनीय रूप से सम्पन्न एवं प्रिय, प्रिय रूपवाला, मनोज्ञ, मनोज्ञ रूपवाला, मणाम, मणाम रूपवाला, सौम्य, सौम्य रूपवाला, प्रियदर्शन और सुन्दर है ! भदन्त ! इस निषध कुमार को इस प्रकार की यह मानवीय ऋद्धि कैसे उपलब्ध हुई, कैसे प्राप्त हुई ? अर्हत् अरिष्टनेमि ने कहा- आयुष्मन् वरदत्त ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में रोहीतक नगर था । वह धन धान्य से समृद्ध था इत्यादि । वहाँ मेघवन उद्यान था और मणिदत्त यक्ष का यक्षायतन था । उस रोहीतक नगर का राजा महाबल था और रानी पद्मावती थी । किसी एक रात उस पद्मावती ने सुखपूर्वक शय्या पर सोते हुए स्वप्न में सिंह को देखा यावत् महाबल के समान पुत्रजन्म का वर्णन जानना । विशेषता यह कि पुत्र का नाम वीरांगद रखा यावत् बत्तीस श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ, यावत् वैभव के अनुरूप छहों ऋतुओं के योग्य इष्ट शब्द यावत् स्पर्श वाले पंच प्रकर के मानवीय कामभोगों का उपभोग करते हुए समय व्यतीत करने लगा । उस काल और उस समय जातिसम्पन्न इत्यादि विशेषणों वाले केशीश्रमण जैसे किन्तु हुश्रुत के धनी एवं विशाल शिष्यपरिवार सहित सिद्धार्थ आचार्य रोहीतक नगर के मणिदत्त यक्ष के यक्षायतन में पधारे और साधुओं के योग्य अवग्रह लेकर विराजे । दर्शनार्थ परिषद् निकली । तब उत्तम प्रासाद में वास करनेवाले उस वीरांगदकुमार ने महान् जन कोलाहल इत्यादि सुना और जनसमूह देखा । वह भी जमालि की तरह दर्शनार्थ निकला । धर्मशा श्रवण करके उसने अनगार-दीक्षा अंगीकार करने का संकल्प किया और फिर जमालि की तरह ही प्रवज्या अंगीकार की और यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया । तत्पश्चात् उस वीरांगद अनगार ने सिद्धार्थ आचार्य से सामायिक से यावत् ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, यावत् विविध प्रकार के तपः कर्म से आत्मा को परिशोधित करते हुए परिपूर्ण पैंतालीस वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर द्विमासिक संलेखना से आत्मा को शुद्ध करके १२० भक्तोंभोजनों का अनशन द्वारा छेदनकर, आलोचना प्रतिक्रमणपूर्वक समाधि सहित कालमास में मरण कर ब्रह्मलोककल्प के मनोरम विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ । वीरांगद देव की दस सागरोपम की स्थिति हुई । वह वीरांगद देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन करके इसी द्वारवती नगरी में वलदेव राजा की रेवती देवी की कुक्षि में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ । उस समय रेवती देवी ने सुखद शय्या पर सोते हुए स्वप्न देखा, यथासमय बालक का जन्म हुआ, वह तरुणावस्था में आया, पाणिग्रहण हुआ यावत् उत्तम प्रासाद में भोग भोगते हुए यह निषेधकुमार विचरण कर रहा है । इस प्रकार, हे वरदत्त ! इस निषध कुमार को यह उत्तम मनुष्य ऋद्धिलब्ध, प्राप्त और अधिगत हुई है । भगवन् ! क्या निषधकुमार आप देवानुप्रिय के पास यावत् प्रव्रजित होने के लिए समर्थ है ? हाँ वरदत्त ! समर्थ है । आपका कथन यथार्थ है, भदन्त ! इत्यादि कहकर वरदत्त अनगार अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । इसके बाद किसी एक समय अर्हत् अरिष्टनेमि द्वारवती नगरी से निकले यावत् बाह्य जनपदों में विचरण करने लगे । निषधकुमार जीवाजीव आदि तत्त्वो का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया । किसी समय पौषधशाला में निषधकुमार आया । घास के संस्तारक- पर बैठकर पौषधव्रत

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