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वहिदशा-१/१
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
२३ वहिदशा
उपांगसूत्र - १२ - हिन्दी अनुवाद
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अध्ययन - १ - निषध
[१] भगवन् ! यदि श्रमण यावत् मोक्ष को प्राप्त हुए भगवान् महावीर ने चतुर्थ उपांग पुष्पचूलिका का यह अर्थ कहा है तो हे भदन्त ! पांचवें वण्हिदसा नामक उपांग-वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? हे जम्बू ! पांचवें वह्निदशा उपांग के बारह अध्ययन कहे हैं। [२] निषध, मातलि, वह, वेहल, पगया, युक्ति, दशरथ, दृढरथ, महाधन्वा, सप्तधन्वा, दशधन्वा और शतधन्वा |
[३] हे भदन्त ! श्रमण यावत् संप्राप्त भगवान् ने प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में द्वारवती - नगरी थी । वह पूर्व - पश्चिम में बारह योजन लम्बी और उत्तर-दक्षिण में नौ योजन चौड़ी थी, उसका निर्माण स्वयं धनपति ने अपने मतिकौशल से किया था । स्वर्णनिर्मित श्रेष्ठ प्राकार और पंचरंगी मणियों के बने कंगूरों से वह शोभित थी । अलकापुरी - समान सुन्दर थी । उसके निवासीजन प्रमोदयुक्त एवं क्रीडा करने में तत्पर रहते थे । वह साक्षात् देवलोक सरीखी प्रतीत होती थी । प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थी । उस द्वारका नगरी के बाहर ईशान कोण में रैवतक पर्वत था । वह बहुत ऊँचा था और उसके शिखर गगनतल को स्पर्श करते थे । वह नाना प्रकार के वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं और वल्लियों से व्याप्त था । हंस, मृग, मयूर आदि पशु-पक्षियों के कलरव से गूंजता रहता था । उसमें अनके तट, मैदान, गुफाएँ, झरने, प्रपात, प्राग्भार और शिखर थे । वह पर्वत अप्सराओं के समूहों, देवों के समुदायों, चारणों और विद्याधरो के मिथुनों
व्याप्त रहता था । तीनों लोकों में बलशाली माने जानेवाले दसारवंशीय वीर पुरुषों द्वारा वहां नित्य नये-नये उत्सव मनाए जाते थे । वह पर्वत सौम्य, सुभग, देखने में प्रिय, सुरूप, प्रासादिक, दर्शनीय, मनोहर और अतीव मनोरम था ।
उस रैवतक पर्वत से न अधिक दूर और न अधिक समीप नन्दनवन उद्यान था । वह सर्व ऋतुओं संबन्धी पुष्पों और फलों से समृद्ध, रमणीय नन्दनवन के समान आनन्दप्रद; दर्शनीय, मनमोहक और मन को आकर्षित करने वाला था । उस नन्दनवन उद्यान के अति मध्य भाग में सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था । वह अति पुरातन था यावत् बहुत से लोग वहाँ आ-आकर सुरप्रिय यक्षायतन की अर्चना करते थे । वह सुरप्रिय यक्षायतन पूर्णभद्र चैत्य के समान चारों ओर से एक विशाल वनखंड से पूरी तरह घिरा हुआ था, यावत् उस वनखण्ड में एक पृथ्वीशिलापट्ट था । उस द्वारका नगरी में कृष्ण वासुदेव राजा थे । वे वहाँ समुद्रविजय आदि दस दसारों का, बलदेव आदि पांच महावीरों का, उग्रसेन आदि १६००० राजाओं का, प्रद्युम्न आदि साढे तीन करोड़ कुमारों का, शाम्ब आदि ६०००० दुर्दान्त योद्धाओं का, वीरसेन