Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 168
________________ पुष्पचूलिका-१/३ १६७ और अति विशाल परिषद् को धर्मदेशना सुनाई । धर्मदेशना सुनकर और उसे हृदयंगम करके वह हृष्ट-तुष्ट हुई । फिर भूता दारिका ने वंदन-नमस्कार किया और कहा-'भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ यावत् निर्ग्रन्थ-प्रवचन को अंगीकार करने के लिए तत्पर हूँ । हे भदन्त ! माता-पिता से आज्ञा प्राप्त कर लूँ, तब मैं यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ।' अर्हत् पार्श्व प्रभु ने उत्तर दिया-'देवानुप्रिये ! इच्छानुसार करो ।' - इसके बाद वह भूता दारिका यावत् उसी धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ हुई । जहाँ राजगृह नगर था, जहाँ अपना आवास स्थान-वहाँ आई । रथ से नीचे उतर कर माता-पिताके समीप आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् जमालि की तरह माता-पिता से आज्ञा मांगी । तदनन्तर सुदर्शन गाथापति ने विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम भोजन बनवाया और मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमंत्रित किया यावत् भोजन करने के पश्चात् शुद्ध-स्वच्छ होकर अभिनिष्क्रमण कराने के लिए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी-शीघ्र ही भूता दारिका के लिए सहस्र पुरुषों द्वारा वहन की जाए ऐसी शिबिका लाओ । तत्पश्चात् उस सुदर्शन गाथापति ने स्नान की हुई और आभूषणों से विभूषित शरीखाली भूता दारिका को पुरुषसहस्रवाहिनी शिबिका पर आरूढ किया यावत् गुणशिलक चैत्य था, वहाँ आया और छत्रादि तीर्थंकरातिशयों को देखकर पालकी को रोका और उससे भूता दारिका को उतारा । इसके बाद माता-पिता उस भूता दारिका को आगे करके जहाँ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्वप्रभु बिराजमान थे, वहाँ आए और तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया तथा कहा-यह भूता दारिका हमारी एकलौती पुत्री है । यह हमें इष्ट है । यह संसार के भय से उद्विग्न होकर आप देवानुप्रिय के निकट मुंडित होकर यावत् प्रव्रजित होना चाहती है । हम इसे शिष्या-भिक्षा के रूप में आपको समर्पित करते हैं । पार्श्व प्रभु ने उत्तर दिया'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो ।' तब उस भूता दारिका ने पार्श्व अर्हत् की अनुमति-सुनकर हर्षित हो, उत्तर-पूर्व दिशा में जाकर स्वयं आभरण-उतारे । यह वृत्तान्त देवानन्दा के समान कह लेना । अर्हत् प्रभु पार्श्व ने उसे प्रव्रजित किया और पुष्पचूलिका आर्या को शिष्या रूप में सौंप दिया । उसने पुष्पचूलिका आर्या से शिक्षा प्राप्त की यावत् वह गुप्त ब्रह्मचारिणी हो गई। कुछ काल के पश्चात् वह भूता आर्यिका शरीरबकुशिका हो गई । वह बारंबार हाथ, पैर, शिर, मुख, स्तनान्तर, कांख, गुह्यान्तर धोती और जहाँ कहीं भी खड़ी होती, सोती, बैठती अथवा स्वाध्याय करती उस-उस स्थान पर पहले पानी छिड़कती और उसके बाद खड़ी होती, सोती, बैठती या स्वाध्याय करती । तब पुष्पचूलिका आर्या ने समझाया-देवानुप्रिये ! हम ईर्यासमिति से समित यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थ श्रमणी हैं । इसलिए हमें शरीरबकुशिका होना नहीं कल्पता है, तुम इस स्थान की आलोचना करो । इत्यादि शेष वर्णन सुभद्रा के समान जानना । यावत् एक दिन उपाश्रय से निकल कर वह बिल्कुल अकेले उपाश्रय में जाकर निवास करने लगी । तत्पश्चात् वह भूता आर्या निरंकुश, बिना रोकटोक के स्वच्छन्दमति होकर बार-बार हाथ धोने लगी यावत् स्वाध्याय करने लगी। तव वह भूता आर्या विविध प्रकार की चतुर्थभक्त, पष्ठभक्त आदि तपश्चर्या करके और बहुत वर्षों तक श्रमणीपर्याय का पालन करके एवं अपनी अनुचित अयोग्य कायप्रवृत्ति की

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