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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
ग्रहण किया । तब उस निपधकुमार को मध्यरात्रि में धार्मिक चिन्तन करते हुए आंतरिक विचार उत्पन्न हुआ-'वे ग्राम, आकर यावत् सन्निवेश निवासी धन्य हैं जहाँ अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु विचरण करते हैं तथा वे राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो अरिष्टनेमि प्रभु को वंदन-नमस्कार करते हैं, यदि अर्हत् अरिष्टनेमि पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए, यावत् यहाँ नन्दनवन में पधारें तो मैं उन अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु को वंदन-नमस्कार करूंगा यावत् पर्युपासना करुंगा । निषधकुमार के मनोगत विचार को जानकर अरिष्टनेमि अर्हत् १८००० श्रमणों के साथ ग्राम-ग्राम आदि में गमन करते हुए यावत् नन्दनवन में पधारे । परिपद् निकली । तब निषधकुमार भी अरिष्टनेमि अर्हत् के पदार्पण के वृत्तान्त को जान कर हर्षित एवं परितुष्ट होता हुआ चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ होकर जमालि की तरह निकला, यावत् माता-पिता से आज्ञा-अनुमति प्राप्त करके प्रव्रजित हुआ । यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया ।
तत्पश्चात् उस निषध अनगार ने अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और विविध प्रकार के यावत् विचित्र तपःकर्मों से आत्मा को भावित करते हुए परिपूर्ण नौ वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन किया। बयालीस भोजनों को अनशन द्वारा त्याग कर आलोचन और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुआ । तब वरदत्त अनगार निषधकुमार को कालगत जानकर अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु के पास आए यावत् कहा-देवानुप्रिय ! प्रकृति से भद्र यावत् विनीत जो आपका शिष्य निषध अनगार था वह कालमास में काल को प्राप्त होकर कहाँ गया है ? अर्हत् अरिष्टनेमि ने कहा-'हे भदन्त ! प्रकृति से भद्र यावत् विनीत मेरा अन्तेवासी निषध अनगार मेरे तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, यावत् मरण करके ऊर्ध्वलोक में, ज्योतिष्क देव विमानों, सौधर्म यावत् अच्युत देवलोकों का तथा गैवेयक विमानों का अतिक्रमण करके सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ है । वहां निषधदेव की स्थिति भी तेतीस सागरोपम की है ।'
___ 'भदन्त !' वह निषधदेव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने के पश्चात् वहाँ से च्यवन करके कहाँ जाएगा ? 'आयुष्मन् वरदत्त ! इसी जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र के उन्नाक नगर में विशुद्ध पितृवंश वाले राजकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा । बाल्यावस्था के पश्चात् युवावस्था को प्राप्त करके तथारूप स्थविरों से केवलबोधि-सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर अगार त्याग कर अनगार प्रव्रज्या को अंगीकार करेगा । ईयर्यासमिति से सम्पन्न यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार होगा और बहुत से चतुर्थभक्त, आदि विचित्र तपसाधना द्वारा आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणावस्था का पालन करेगा । मासिक संलेखना द्वारा आत्मा को शुद्ध करेगा, साठ भोजनों का अनशन द्वारा त्याग करेगा और जिस प्रयोजन के लिए ननभाव, मुंडभाव, स्नानत्याग यावत् दांत धोने का त्याग, छत्र का त्याग, उपानह का त्याग तथा केशलोंच, ब्रह्मचर्य ग्रहण करना, भिक्षार्थ पर-गृह में प्रवेश करना, यथापर्याप्त भोजन की प्राप्ति होना या न होना, तीव्र और सामान्य ग्रामकंटकों को सहन किया जाता है, उस साध्य की आराधना करेगा और आराधना करके चरम श्वासोच्छ्वास में सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् महावीर ने वृष्णिदशा के प्रथम अध्ययन का यह आशय प्रतिपादित किया है, ऐसा मैं कहता हूँ ।'