Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 159
________________ १५८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद बालिका का प्रसव कर सकूँ ? ___ तब उन आर्यिकाओं ने सुभद्रा सार्थवाही से कहा-देवानुप्रिय । हम ईर्यासमिति आदि समितिओं से समित, तीन गुप्तिओं से गुप्त, यावत् श्रमणियाएं हैं । हमको ऐसी बातों का सुनना भी नहीं कल्पता है तो फिर हम इनका उपदेश कैसे कर सकती हैं ? किन्तु हम तुम्हें केवलिप्ररूपित धर्मोपदेश सुना सकती हैं । इसके बाद उन आर्यिकाओं से धर्मश्रवण कर उसे अवधारित कर उस सुभद्रा सार्थवाही ने हृष्ट-तुष्ट हो उन आर्याओं को तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिणा की । दोनों हाथ जोड़कर वंदन-नमस्कार किया । उसने कहा-मैं निर्गन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ, विश्वास करती हूँ, रुचि करती हूँ | आपने जो उपदेश दिया है, वह तथ्य है, सत्य है, अवितथ है । यावत् मैं श्रावकधर्म को अंगीकार करना चाहती हूँ । देवानुप्रिये ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो किन्तु प्रमाद मत करो । तब उसने आर्यिकाओं से श्रावकधर्म अंगीकार किया । उन आर्यिकाओं को वन्दन-नमस्कार किया । वह सुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका होकर श्रावकधर्म पालती हुई यावत् विचरने लगी । इसके बाद उस सुभद्रा श्रमणोपासिका को किसी दिन मध्यरात्रि के समय कौटुम्बिक स्थिति पर विचार करते हुए इस प्रकार का आन्तरिक मनःसंकल्प यावत् विचार समुत्पन्न हुआ“मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगोपभोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही हूँ किन्तु मैंने अभी तक एक भी दारक या दारिका को जन्म नहीं दिया है । अतएव मुझे यह उचित है कि मैं कल यावत् जाज्वल्यमान तेज सहित सूर्य के प्रकाशित होने पर भद्र सार्थवाह से अनुमति लेकर सुव्रता आर्यिका के पास गृह त्यागकर यावत् प्रव्रजित हो जाऊँ । भद्र सार्थवाह को दोनों हाथ जोड़ यावत् इस प्रकार बोली-तुम्हारे साथ बहुत वर्षों से विपुल भोगों को भोगती हुई समय बिता रही हूँ, किन्तु एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया है । अब मैं आप देवानुप्रिय की अनुमति प्राप्त करके सुव्रता आर्यिका के पास यावत् प्रव्रजित-दीक्षित होना चाहती हूँ । तब भद्र सार्थवाह ने कहा-तुम अभी मुंडित होकर यावत् गृहत्याग करके प्रव्रजित मत होओ, मेरे साथ विपुल भोगोपभोगों का भोग करो और भोगों को भोगने के पश्चात् यावत् अनगार प्रव्रज्या अंगीकार करना । तब सुभद्रा सार्थवाही ने भद्र सार्थवाह के वचनों का आदर नहीं किया दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी सुभद्रा सार्थवाही ने यही कहा-आपकी आज्ञा लेकर मैं सुव्रताआर्या के पास प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ । जब भद्र सार्थवाह अनुकूल और प्रतिकूल बहुत सी युक्तियों, प्रज्ञप्तियों, संज्ञप्तियों और विज्ञप्तियों से उसे समझाने-बुझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हुआ तब इच्छा न होने पर भी लाचार होकर सुभद्रा को दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी । तत्पश्चात् भद्र सार्थवाह ने विपुल परिमाण में अशन-पान-खादिम-स्वादिम भोजन तैयार करवाया और अपने सभी मित्रों, जातिबांधवों, स्वजनों, सम्बन्धी-परिचितों को आमन्त्रित किया । उन्हें भोजन कराया यावत् उन का सत्कार-सम्मान किया । फिर स्नान की हुई, कौतुक-मंगल प्रायश्चित्त आदि से युक्त, सभी अलंकारों से विभूषित सुभद्रा सार्थवाही को हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने योग्य पालकी में बैठाया और उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही जहाँ

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