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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
व्रतों को अंगीकार किया, वेदाध्ययन किया, पत्नी को लाया- कुलपरंपरा की वृद्धि के लिए पुत्रादि संतान को जन्म दिया, समृद्धियों का संग्रह किया - अर्थोपार्जन किया, पशुबंध किया, यज्ञ किए, दक्षिणा दी, अतिथिपूजा - किया, अग्नि में हवन किया - आहुति दी, यूप स्थापित किये, इत्यादि गृहस्थ सम्बन्धी कार्य किये । लेकिन अब मुझे यह उचित है कि कल रात्रि के प्रभात रूप में परिवर्तित हो जाने पर, जब कमल विकसित हो जाएँ, प्रभात पाण्डुर- श्वेत वर्ण का हो जाए, लाल अशोक, पलाशपुष्प, तोते की चोंच, चिरमी के अर्धभाग, बंधुजीवकपुष्प, कबूतर के पैर, कोयल के नेत्र, जसद के पुष्प, जाज्वल्यमान अग्नि, स्वर्णकलश एवं हिंगुलकसमूह की लालिमा से भी अधिक रक्तिम श्री से सुशोभित सूर्य उदित हो जाए और उसकी किरणों के फैलने से अंधकार विनष्ट हो जाए, सूर्य रूपी कुंकुम से विश्व व्याप्त हो जाए, नेत्रों के विषय का प्रचार होने से विकसित होनेवाला लोक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे, तब वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम्र-उद्यान लगवाऊं, इसी प्रकार से मातुलिंग, बिल्व, कविट्ठ, चिंचा और फूलों की वाटिकाएँ लगवाऊँ ।' तत्पश्चात् वे बहुत से आम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे अनुक्रम से संरक्षण, संगोपन और संवर्धन किये जाने से दर्शनीय बगीचे बन गये । श्यामल, श्यामल आभावाले यावत् रमणीय महामेघों के समूह के सदृश होकर पत्र, पुष्प, फल एवं अपनी हरी-भरी श्री से अतीव अतीव शोभायमान हो गये ।
इसके बाद पुनः उस सोमिल ब्राह्मण को किसी अन्य समय मध्यरात्रि में कौटुम्बिक स्थिति का विचार करते हुए इस प्रकार का यह आन्तरिक यावत् मनःसंकल्प उत्पन्न हुआवाराणसी नगरी वासी मैं सोमिल ब्राह्मण अत्यन्त शुद्ध - कुल में उत्पन्न हुआ । मैंने व्रतों का पालन किया, वेदों का अध्ययन आदि किया यावत् यूप स्थापित किये और इसके बाद वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे लगवाए । लेकिन
अब मुझे यह उचित है कि कल यावत् तेज सहित सूर्य के प्रकाशित होने पर बहुत से लोहे के कड़ाह, कुडछी एवं तापसों के योग्य तांबे के पात्रों-घड़वाकर तथा विपुल मात्रा में अशनपान खादिम - स्वादिम भोजन बनवाकर मित्रों, जातिबांधवों, स्वजनों, संबन्धियों और परिचित जनों को आमंत्रित कर उन का विपुल अशन-पान - खादिम - स्वादिम, वस्त्र, गंध, माला एवं अलंकारों से सत्कार - सन्मान करके उन्हीं के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपकर तथा मित्रों-जाति-बंधुओं आदि परिचितों और ज्येष्ठपुत्र से पूछकर उन बहुत से लोहे के कड़ाहे, कुड़छी आदि तापसों के पात्र लेकर जो गंगातटवासी वानप्रस्थ तापस हैं, जैसे कि - होत्रिक, पोत्रिक, कौत्रिक, यात्रिक, श्राद्धकिन, स्थालकिन, हुम्बउट्ट, दन्तोदूखलिक, उन्मज्ञ्जक, समज, निमज्जक, संप्रक्षालक, दक्षिणकूल, वासी, उत्तरकूल-वासी, शंखध्मा, कूलध्मा, मृगलुब्धक, हस्तीतापस, उद्दण्डक, दिशाप्रोक्षिक, वल्कवासी, बिलवासी, जलवासी, वृक्षमूलिक, जलभक्षी, वायुभक्षी, शैवालभक्षी, मूलाहारी, कंदाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, बीजाहारी, विनष्ट कन्द, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल को खानेवाले, जलाभिषेक से शरीर कठिन - बनानेवाले हैं तथा आतापना और पंचाग्नि ताप से अपनी देह को अंगारपक्क और कंदुपक्क जैसी बनाते हुए समय यापन करते हैं ।