________________
निरयावलिका-१/१०
१३५
किन्तु इस अयोग्य एवं अनिष्ट दोहद के पूर्ण न होने से चेलना देवी शुष्क, पीड़ित, मांसरहित, जीर्ण और जीर्ण शरीर वाली हो गई, निस्तेज, दीन, विमनस्के जैसी हो गई, विवर्णमुखी, नेत्र
और मुखकमल को नमाकर यथोचित पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकारों का उपभोग नहीं करती हुई, मुरझाई हुई, आहतमनोरथा यावत् चिन्ताशोक-सागर में निमग्न हो, हथेली पर मुख को टिकाकर आर्तध्यान में डूब गई । तब चेलना देवी की अंगपरिचारिकाओं ने चेलना देवी को सूखी-सी, भूख से ग्रस्त-सी यावत् चिन्तित देखा । वे श्रेणिक राजा के पास पहुँची । उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके श्रेणिक राजा से कहा-'स्वामिन् ! न मालूम किस कारण से चेलना देवी शुष्क-बुभुक्षित जैसी होकर यावत् आर्तध्यान में डूबी
श्रेणिक राजा उन अंगपरिचारिकाओं की इस बात को सुनकर और समझकर आकुलव्याकुल होता हुआ, चेलना देवी के पास आया । चेलना देवी को सूखी-सी, भूख से पीड़ित जैसी, यावत् आर्तध्यान करती हुई देखकर बोला-'देवानुप्रिये ! तुम क्यों शुष्कशरीर, भूखीसी यावत् चिन्ताग्रस्त हो रही हो ?' लेकिन चेलना देवी ने श्रेणिक राजा के इस प्रश्न का आदर नहीं किया, वह चुपचाप बैठी रही । तब श्रेणिक राजा ने पुनः दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी यही प्रश्न चेलना देवी से पूछा और कहा-देवानुप्रिये ! क्या मैं इस बात को सुनने के योग्य नहीं हूँ जो तुम मुझसे इसे छिपा रही हो ? चेलना देवी ने श्रेणिक राजा से कहा-'स्वामिन् ! बात यह है कि उस उदार यावत् महास्वप्न को देखने के तीन मास पूर्ण होने पर मुझे इस प्रकार का यह दोहद उत्पन्न हुआ है-'वे माताएँ धन्य हैं जो आपकी उदरावलि के शूल पर सेके हुए यावत् मांस द्वारा तथा मदिरा द्वारा अपने दोहद को पूर्ण करती हैं ।' लेकिन स्वामिन् ! उस दोहद को पूर्ण न कर सकने के कारण मैं शुष्कशरीरी, भूखी-सी यावत् चिन्तित हो रही हूँ।
तब श्रेणिक राजा ने चेलना देवी की उक्त बात को सुनकर उसे आश्वासन देते हुए कहा-देवानुप्रिये ! तुम हतोत्साह एवं चिन्तित न होओ । मैं कोई ऐसा उपाय करूंगा जिससे तुम्हारे दोहद की पूर्ति हो सकेगी । ऐसा कहकर चेलनादेवी को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मणाम, प्रभावक, कल्याणप्रद, शिव, धन्य, मंगलरूप मृदु-मधुर वाणी से आश्वस्त किया । वह चेलना देवी के पास से निकलकर बाह्य सभाभवन में उत्तम सिंहासन के पास आया । आकर पूर्व की ओर मुख करके आसीन हो गया । वह दोहद की संपूर्ति के लिए आयों से उपायों से औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी-बुद्धियों से वारंवार विचार करते हुए भी इसके आय-उपाय, स्थिति एवं निष्पत्ति को समझ न पाने के कारण उत्साहहीन यावत् चिन्ताग्रस्त हो उठा । इधर अभयकुमार स्नान करके यावत् अपने शरीर को अलंकृत करके अपने आवासगृह से बाहर निकला । जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आया । उसने श्रेणिक राजा को निरुत्साहित जैसा देखा, यह देखकर वह बोला-तात ! पहले जब कभी आप मुझे आता हुआ देखते थे तो हर्षित यावत् सन्तुष्टहृदय होते थे, किन्तु आज ऐसी क्या बात है जो आप उदास यावत् चिन्ता में डूबे हुए हैं ? तात ! यदि मैं इस अर्थ को सुनने के योग्य हूँ तो आप