________________
जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-५/२२७
१०३
जा रहे हैं । आप सभी अपनी सर्वविध ऋद्धि, द्युति, बल, समुदय, आदर विभूति, विभूषा, नाटक-नृत्य-गीतादि के साथ, किसी भी बाधा की पर्वाह न करते हुए सब प्रकार के पुष्पों, सुरभित पदार्थों, मालाओं तथा आभूषणों से विभूषित होकर दिव्य, तुमुल ध्वनि के साथ महती ऋद्धि यावत् उच्च, दिव्य वाद्यध्वनिपूर्वक अपने-अपने परिवार सहित अपने-अपने विमानों पर सवार होकर शक्र के समक्ष उपस्थित हों ।'
देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा इस प्रकार आदेश दिये जाने पर हरिणेगमेषी देव हर्षित होता है, परितुष्ट होता है, आदेश स्वीकार कर शक्र के पास से निकलता है । सुघोषा घण्टा को तीन बार बजाता है | मेघसमूह के गर्जन की तरह गंभीर तथा अत्यन्त मधुर ध्वनि से युक्त, एक योजन वर्तुलाकार सुघोषा घण्टा के तीन बार बजाये जाने पर सौधर्म कल्प में एक कम बत्तीस विमानों में एक कम वत्तीस लाख घण्टाएँ एक साथ तुमुल शब्द करने लगती हैं । सौधर्मकल्प के प्रासादों एवं विमानों के निष्कुट, कोनों में आपतित शब्द-वर्गणा के पुद्गल लाखों घण्टाप्रतिध्वनियों के रूप में प्रकट होने लगते हैं । सौधर्मकल्प सुन्दर स्वरयुक्त घण्टाओं की विपुल ध्वनि से आपूर्ण हो जाता है । वहाँ निवास करने वाले बहुत से वैमानिक देव, देवियाँ जो रतिसुख में प्रसक्त तथा प्रमत्त रहते हैं, मूर्च्छित रहते हैं, शीघ्र जागरित होते हैं-घोषणा सुनने हेतु उनमें कुतूहल उत्पन्न होता है, उसे सुनने में वे दत्तचित्त हो जाते हैं । जब घण्टा ध्वनि निःशान्त, प्रशान्त होता है, तब हरिणेगमेषी देव स्थान-स्थान पर जोर-जोर से उद्घोषणा करता हुआ कहता है
सौधर्मकल्पवासी बहुत से देवो ! देवियो ! आप सौधर्मकल्पपति का यह हितकर एवं सुखप्रद वचन सुनें, आप उन के समक्ष उपस्थित हों । यह सुनकर उन देवों, देवियों के हृदय हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं । उनमें से कतिपय भगवान् तीर्थंकर के वन्दन-हेतु, कतिपय पूजन हेतु, कतिपय सत्कार, सम्मान, दर्शन की उत्सुकता, भक्ति-अनुरागवश तथा कतिपय परंपरानुगत आचार मानकर वहाँ उपस्थित हो जाते हैं । देवेन्द्र, देवराज शक्र उन वैमानिक देव-देवियों को अविलम्ब अपने समक्ष उपस्थित देखता है । अपने पालक नामक आभियोगिक देवों को बुलाकर कहता है-देवानुप्रिय ! सैकड़ों खंभों पर अवस्थित, क्रीडोद्यत पुत्तलियों से कलित, ईहामृग-वृक, वृषभ, अश्व आदि के चित्रांकन से युक्त, खंभों पर उत्कीर्ण वज्ररत्नमयी वेदिका द्वारा सुन्दर प्रतीयमान, संचरणशील सहजात पुरुष-युगल की ज्यों प्रतीत होते चित्रांकित विद्याधरों से समायुक्त, अपने पर जड़ी सहस्रों मणियों तथा रत्नों की प्रभा से सुशोभित, हजारों रूपकोंअतीव देदीप्यमान, नेत्रों में समा जानेवाले, सुखमय स्पर्शयुक्त, सश्रीक, घण्टियों की मधुर, मनोहर ध्वनि से युक्त, सुखमय, कमनीय, दर्शनीय, देदीप्यमान मणिरत्नमय घण्टिकाओं के समूह से परिव्याप्त, १००० योजन विस्तीर्ण, ५०० योजन ऊँचे, शीघ्रगामी, त्वरितगामी, अतिशय वेगयुक्त एवं प्रस्तुत कार्य-निर्वहण में सक्षम दिव्य विमान की विकुर्वणा करो ।।
२२८] देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा यों कहे जाने पर-पालक नामक देव हर्षित एवं परितुष्ट होता है । वह वैक्रिय समुद्घात द्वारा यान-विमान की विकुर्वणा करता है । उस यानविमान के भीतर बहुत समतल एवं रमणीय भूमि-भाग है । वह आलिंग-पुष्कर तथा शंकुसदृश बड़े-बड़े कीले ठोक कर, खींचकर समान किये गये चीते आदि के चर्म जैसा समतल और सुन्दर है । वह भूमिभाग आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, वर्द्धमान, पुष्यमाणव,