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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-५/२२६
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चारों विदिशाओं में निवास करने वाली चार दिक्कुमारिकाएँ हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं-चित्रा, चित्रकनका, श्वेता तथा सौदामिनी । वे आकर तीर्थंकर तथा उनकी माता के चारों विदिशाओं में अपने हाथों में दीपक लिये आगान-परिगान करती हैं । उस काल, उस समय मध्य रुचककूट पर निवास करनेवाली चार दिक्ककुमारिकाएँ हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं-रूपा, रूपासिका, सुरूपा तथा रूपकावती । वे उपस्थित होकर तीर्थंकर के नाभि-नाल को चार अंगुल छोड़कर काटती हैं । जमीन में गड्डा खोदती हैं । नाभि-नाल को उनमें गाड़ देती हैं और उस गड्ढे को रत्नों से, हीरों से भर देती हैं । गड्डा भरकर मिट्टी जमा देती हैं, उस पर हरी-हरी दूब उगा देती हैं | उसकी तीन दिशाओं में तीन कदलीगृह-की, उन कदली-गृहों के बीच में तीन चतुः शालाओं की तथा उन भवनों के बीचों बीच तीन सिंहासनों की विकुर्वणा करती हैं ।
फिर वे मध्यरुचकवासिनी महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थंकर तथा उसकी माता के पास आती हैं | तीर्थंकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा उठाती हैं और तीर्थंकर की माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं । दक्षिणदिग्वर्ती कदलीगृह में तीर्थंकर एवं उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं । उनके शरीर पर शतपाक एवं सहस्रपाक तैल द्वारा अभ्यंगन करती हैं । फिर सुगन्धित गन्धाटक से तैयार किये गये उबटन से-तैल की चिकनाई दूर करती हैं। वे भगवान् तीर्थंकर को पूर्वदिशावर्ती कदलीगृह में लाकर तीर्थंकर एवं उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं । गन्धोदक, पुष्पोदक तथा शुद्ध जल के द्वारा स्नान कराती हैं । सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित करती हैं । तत्पश्चात् भगवान् तीर्थंकर और उनकी माता को उत्तरदिशावर्ती कदलीगृह में लाती हैं । उन्हें सिंहासन पर बिठाकर अपने आभियोगिक देवों को बुलाकर कहती हैं-देवानुप्रियो ! चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से गोशीर्ष-चन्दन-काष्ठ लाओ ।'
वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं, शीघ्र ही चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से ताजा गोशीर्ष चन्दन ले आते हैं । तब वे मध्य रुचकनिवासिनी दिक्कुमारिकाएं शरक, अग्निउत्पादक काष्ठ-विशेष तैयार करती हैं । उसके साथ अरणि काष्ठ को संयोजित करती हैं । अग्नि उत्पन्न करती हैं । उद्दीप्त करती हैं । उसमें गोशीर्ष चन्दन के टुकड़े डालती हैं । अग्नि को प्रज्वलित कर उसमें समिधा डालती हैं, हवन करती हैं, भूतिकर्म करती हैं वे डाकिनी, शाकिनी आदि से, दृष्टिदोष रक्षा हेतु भगवन् तीर्थंकर तथा उनकी माता के भस्म की पोटलियां बाँधती हैं । फिर नानाविध मणि-रत्नांकित दो पाषाण-गोलक लेकर वे भगवान तीर्थंकर के कर्णमूल में उन्हें परस्पर ताडित कर बजाती हैं, जिससे बाललीलावश अन्यत्र आसक्त भगवान् तीर्थंकर उन द्वारा वक्ष्यमाण आशीर्वचन सुनने में दत्तावधान हो सकें । वे आशीर्वाद देती हैंभगवन् ! आप पर्वत के सदृश दीर्घायु हों ।' फिर मध्य रुचकनिवासिनी वे चार महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ भगवान् को तथा भगवान् की माता को तीर्थंकर के जन्म-भवन में ले आती हैं। भगवन की माता को वे शय्या पर सुला देती हैं । शय्या पर सुलाकर भगवान को माता की बगल में रख देती हैं- । फिर वे मंगल-गीतों का आगान, परिगान करती है ।
[२२७] उस काल, उस समय शक्र नामक देवेन्द्र, देवराज, वज्रपाणि, पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन, दक्षिणार्धलोकाधिपति, बत्तीस लाख विमानों के स्वामी, ऐरावत हाथी पर सवारी करनेवाले, सुरेन्द्र, निर्मल वस्त्रधारी, मालायुक्त मुकुट धारण किये हुए, उज्ज्वल स्वर्ण के सुन्दर, चित्रित चंचल-कुण्डलों से जिसके कपोल सुशोभित थे, देदीप्यमान शरीरधारी,