________________
जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-७/३४५
१२९
-
[३४५] चार-चार हजार सिंहरूपधारी देव, चार-चार हजार गजरूपधारी देव, चार-चार हजार वृषभरूपधारी देव तथा चार-चार हजार अश्वरूपधारी देव-कुल सोलह-सोलह हजार देव सूर्य विमानों का परिवहन करते हैं । ग्रहों के विमानों का दो-दो हजार सिंहरूपहधारी देव, दोदो हजार गजरूपधारी देव, दो-दो हजार वृषभरूपधारी देव और दो-दो हजार अश्वरूपधारी देवकुल आठ-आठ हजार देव परिवहन करते हैं ।
[३४६] नक्षत्रों के विमानों का एक-एक हजार सिंहरूपधारी देव, एक-एक हजार गजरूपधारी देव एक-एक हजार वृषभरूपधारी देव एवं एक-एक हजार अश्वरूपधारी देव-कुल चार-चार हजार देव परिवहन करते हैं । तारों के विमानों का पाँच-पाँच सौ सिंहरूपधारी देव, पाँच-पाँच सौ गजरूपधारी देव, पाँच-पाँच सौ वृषभरूपधारी देव तथा पाँच-पाँच सौ अश्वरूपधारी देव-कुल दो-दो हजार देव परिवहन करते हैं ।
[३४७] उपर्युक्त चन्द्र-विमानों के वर्णन के अनुरूप सूर्य-विमान यावत् तारा-विमानों का वर्णन है ।
[३४८] भगवन् ! इन चन्द्रों, सूर्यों, ग्रहों, नक्षत्रों तथा तारों में कौन सर्वशीघ्रगति हैं ? कौन सर्वशीघ्रतर गतियुक्त हैं ? गौतम ! चन्द्रों की अपेक्षा सूर्य, सूर्यों की अपेक्षा ग्रह, ग्रहों की अपेक्षा नक्षत्र तथा नक्षत्रों की अपेक्षा तारे शीघ्र गतियुक्त हैं । इनमें चन्द्र सबसे अल्प या मन्दगतियुक्त हैं तथा तारे सबसे अधिक शीघ्रगतियुक्त हैं ।
[३४९] इन चन्द्रों, सूर्यों, ग्रहों, नक्षत्रों तथा तारों में कौन सर्वमहर्द्धिक हैं ? कौन सबसे अल्प ऋद्धिशाली हैं ? गौतम ! तारों से नक्षत्र, नक्षत्रों से ग्रह, ग्रहों से सूर्य तथा सूर्यो से चन्द्र अधिक ऋद्धिशाली हैं | तारे सबसे कम ऋद्धिशाली तथा चन्द्र सबसे अधिक ऋद्धिशाली हैं।
[३५०] भगवन् ! जम्बूद्वीप में एक तारे से दूसरे तारे का कितना अन्तर है ? गौतम ! अन्तर दो प्रकार का है-व्याघातिक और नियाघातिक । एक तारे से दूसरे तारे का निर्व्याघातिक अन्तर जघन्य ५०० धनुष तथा उत्कृष्ट २ गव्यूत है । एक तारे से दूसरे तारे का व्याघातिक अन्तर जघन्य २६६ योजन तथा उत्कृष्ट १२२४२ योजन है ।।
[३५१] भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के इन्द्र, ज्योतिष्क देवों के राजा चन्द्र के कितनी अग्रमहिषियां हैं ? गौतम ! चार, -चन्द्रप्रभा, ज्योत्सनाभा, अर्चिमाली तथा प्रभंकरा । उनमें से एक-एक अग्रमहिषी का चार-चार हजार देवी-परिवार है । एक-एक अग्रमहिषी अन्य सहस्र देवियों की विकर्वणा करने में समर्थ होती है । यों विकर्वणा द्वारा सोलह हजार देवियाँ निष्पन्न होती हैं । भगवन् ! क्या ज्योतिष्केन्द्र, ज्योतिष्कराज चन्द्रावतंसक विमान में चन्द्रा राजधानी में सुधर्मासभा में अपने अन्तःपुर के साथ नाट्य, गीत, वाद्य आदि का आनन्द लेता हुआ दिव्य भोग भोगने में समर्थ होता है ? गौतम ! ऐसा नहीं होता क्योंकी-ज्योतिष्केन्द्र, ज्योतिष्कराज चन्द्र के चन्द्रावतंसक विमान में चन्द्रा राजधानी में सुधर्मासभा में माणवक नामक चैत्यस्तंभ है । उस पर वज्रमय गोलाकार सम्पुटरूप पात्रों में बहुत सी जिन-सक्थियाँ हैं । वे चन्द्र तथा अन्य बहुत से देवों एवं देवियों के लिए अर्चनीय तथा पर्युपासनीय हैं । वह वहाँ केवल अपनी परिवार-ऋद्धि-यह मेरा अन्तःपुर है, मैं इनका स्वामी हूं-यों अपने वैभव तथा प्रभुत्व की सुखानुभूति कर सकता है, मैथुनसेवन नहीं करता । सब ग्रहों आदि की