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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
मत्स्य के अंडे, मगर के अंडे, जार, मार, पुष्पावलि, कमलपत्र, सागर-तरंग वासन्तीलता एवं पद्मलता के चित्रांकन से युक्त, आभायुक्त, प्रभायुक्त, रश्मियुक्त, उद्योतयुक्त नानाविध पंचरंगी मणियों से सुशोभित है । उस भूमिभाग के ठीक बीच में एक प्रेक्षागृह मण्डप । वह सैकड़ों खंभों पर टिका है, उस प्रेक्षामण्डप के ऊपर का भाग पद्मलता आदि के चित्रण से युक्त है, सर्वथा तपनीय-स्वर्णमय है, यावत् प्रतिरूप है ।
उस मण्डप के भूमिभाग के बीचोंबीच एक मणिपीठिका है । वह आठ योजन लम्बीचौड़ी तथा चार योजन मोटी है, सर्वथा मणिमय है । उसके ऊपर एक विशाल सिंहासन है । उसके ऊपर एक सर्वरत्नमय, बृहत् विजयदृष्य है। उसके बीच में एक वज्ररत्नमय अंकुश है। वहाँ एक कुम्भिका प्रमाण मोतियों की बृहत् माला है । वह मुक्तामाला अपने से आधी ऊँची, अर्ध कुम्भकापरिमित चार मुक्तामालाओं द्वारा चारों ओर से परिवेष्टित है । उन मालाओं में तपनीय-स्वर्णनिर्मित लंबूसक लटकते हैं । वे सोने के पातों से मण्डित हैं । वे नानाविध मणियों एवं रत्नों से निर्मित हारों, अर्धहारों से उपशोभित हैं, विभूषित हैं । पूर्वीय-आदि वायु के झोंकों से धीरे-धीरे हिलती हुई, परस्पर टकराने से उत्पन्न कानों के लिए तथा मन के लिए शान्तिप्रद शब्द से आस-पास के प्रदेशों को आपूर्ण करती हुई - भरती हुई वे अत्यन्त सुशोभित होती हैं । उस सिंहासन के वायव्यकोण में, उत्तर में एवं ईशान में शक्र के ८४००० सामानिक देवों के ८४००० उतम आसन हैं, पूर्व में आठ प्रधान देवियों के आठ उत्तम आसन हैं, आग्नेयकोण में आभ्यन्तर परिषद् के १२००० देवों के १२०००, दक्षिण में मध्यम परिषद् के १४००० देवों के १४००० तथा नैर्ऋत्यकोण में बाह्य परिषद् के १६००० देवों के १६००० उत्तम आसन हैं । पश्चिम में सात अनीकाधिपतियों के सात उत्तम आसन हैं । उस सिंहासन की चारों दिशाओं में चौरासी चौरासी हजार आत्मरक्षक कुल ३३६००० उत्तम आसन हैं । इनस सबकी विकुर्वणा कर पालक देव शक्रेन्द्र को निवेदित करता है ।
[२२९] पालक देव द्वारा दिव्य यान की रचना को सुनकर शक्र मन में हर्पित होता है । जिनेन्द्र भगवान् के सम्मुख जाने योग्य, दिव्य, सर्वालंकारविभूषित, उत्तरवैक्रिय रूप की विकुर्वणा करता है । सपरिवार आठ अग्रमहिषियों, नाट्यानीक, गन्धर्वानीक के साथ उस यान- विमान की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपनक से - विमान पर आरूढ होता है । पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर आसीन होता है । उसी प्रकार सामानिक देव, बाकी के देवदेवियाँ दक्षिणदिग्वर्ती त्रिसोपानक से विमान पर आरूढ होकर उसी तरह बैठ जाते हैं । शक्र के यों विमानारूढ होने पर आगे आठ मंगलिक - द्रव्य प्रस्थित होते हैं । तत्पश्चात् शुभ शकुन के रूप में समायोजित, प्रयाण प्रसंग में दर्शनीय जलपूर्ण कलश, जलपूर्ण झारी, चँवर सहित दिव्य छत्र, दिव्य पताका, वायु द्वारा उड़ाई जाती, अत्यन्त ऊँची, मानो आकाश को छूती हुईसी विजय- वैजयन्ती से क्रमशः आगे प्रस्थान करते हैं ।
तदनन्तर छत्र, विशिष्ट वर्णकों एवं चित्रों द्वारा शोभित निर्जल झारी, फिर वज्ररत्नमय, वर्तुलाकार, लष्ट, सुश्लिष्ट, परिघृष्ट, स्निग्ध, मृष्ट, मृदुल, सुप्रतिष्ठित, विशिष्ट, अनेक उत्तम, पंचरंगी हजारों कुडभियों से अलंकृत, सुन्दर, वायु द्वारा हिलती विजय- वैजयन्ती, ध्वजा, छत्र एवं अतिछत्र से सुशोभित, तुंग आकाश को छूते हुए से शिखर युक्त १००० योजन ऊँचा, अतिमहत् महेन्द्रध्वज यथाक्रम आगे प्रस्थान करता है । उसके बाद अपने कार्यानुरूप वेष से